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लीवर, पीलिया और आयुर्वेद चिकित्सा द्वारा लीवर का प्रबंधन

लीवर, पीलिया और आयुर्वेद चिकित्सा द्वारा लीवर का प्रबंधन

१. लीवर क्या हैं::-
    
  लीवर हमारें शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है,जिसका मुख्य काम शुद्धीकरण,विटामिन और आयरन का संग्रहण करना हैं.इसके अलावा शरीर मे शक्कर लेवल कम होनें पर संग्रहित शक्कर को शरीर में पहुँचाना, वसा को पचानें के लिये पित्त बनाना भी लीवर का काम हैं.इन्सुलिन  हिमोग्लोबिन व अन्य हार्मोंन को भी लीवर तोड़ता हैं.

   २.लीवर से सम्बंधित बीमारींयाँ::-
  
(अ). हेपेटाइटिस
(ब).पीलिया
लीवर से सम्बंधित ये दो बीमारींयाँ आम तोर पर हर तीसरे व्यक्ति में अपनें जीवन काल मे आमतौर पर हो ही जाती हैं.

३.लीवर को चुस्त रखनें वाले आहार::-
   
(अ).हल्दी लीवर का सबसे प्रिय मसाला है जो शुद्धीकरण की प्रक्रिया को तेज करता हैं.
(ब).अखरोट में मोजूद ओमेगा - ३ फेटीएसिड़ लीवर की प्राक्रतिक शुद्धिकरण की कार्यप्रणाली को मज़बूत बनाता हैं.
(स) .लहसुन मे मोजूद सल्फर,एलिसीन सेलिनियम हानिकारक तत्वों की शुद्धिकरण करनें वाले एन्जाइम बनाते हैं.
(द).ओलिव आँइल लीवर को तरल आधार देता हैं, जो विषाणु को सोख लेता हैं.
(त).हरी पत्तेदार सब्जियाँ ग्लूकोसिनोलेट एंजाइम बनाती हैं,जो लीवर की कार्यप्रणाली को सरल करता हैं.

४.उपचार::-
        (अ).   पुर्ननवा मन्डूर भस्म, द्राछा,हल्दी, लोह भस्म, शिलाजित,आवँला, तुलसी, शंख वटी,अश्वगंधा, गिलोय, पपीता रस को मिलाकर तीन हफ्तें तक सेवन करवाते रहें हेपेटाइटिस को खत्म कर देगा.
       (ब) .गन्नें के रस में दाडिमाष्टक चूर्ण मिलाकर दिन में तीन बार सेवन करनें से पीलिया में राहत मिलती हैं

५.योगिक क्रियाएँ::-
                           कपालभाँति, शीर्षासन, अनुलोम-विलोम, भसतिृका करते रहनें से शीघ्र आराम मिलता हैं.
आज हम आयुर्वैद उपचार के अन्तर्गत कामला अर्थात पीलिया (jaundice) की चर्चा करेंगें आयुर्वैद में स्वस्थ शरीर के लिये वात, पित्त एँव कफ का संतुलित रहना आवश्यक है. इन तीनों का असन्तुलन रोग उत्पन्न करता हैं.

पीलिया पित्त का असन्तुलन हैं, यह रोग लीवर यानि यकृत को पृभावित करता हैं, और रक्त निर्माण बाधित करता हैं, आयुर्वैद में पीलिया का बहुत सटीक उपचार वर्णित हैं,


१.पुर्ननवा मन्डूर, नवायस लोह, दृाछा, अश्वगंधा, शिलाजित ,हल्दी ,बायबिडंग को विशेष अनुपात मे मिलाकर रोगी को लगातार चार हफ्तों तक सेवन करवाने से बीमारीं समाप्त हो जाती हैं.


२.रोगी को दिन में दस बारह बार एक गिलास गन्नें का रस दाडिमाष्टक चूर्ण स्वादानुसार मिलाकर पिने से रोग जड़ मूल से नष्ट हो जाता हैं और भविष्य मे दुबारा वापस नहीं होता हैं.


३.योग की अनेक किृयाएँ जैसे कपालभांति, सू्र्यनमस्कार ,शीर्षासन ,पद्मासन और पृाणायाम इस रोग को समाप्त करता हैं.
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