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भगवान श्री राम का प्रेरणाप्रद चरित्र [BHAGVAN SHRI RAM]


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 Shri ram

#भगवान श्री राम का प्रेरणाप्रद चरित्र

रामायण या रामचरित मानस सेकड़ों वर्षों से आमजनों द्धारा पढ़ी और सुनी जा रही हैं.जिसमें भगवान राम के चरित्र को विस्तारपूर्वक समझाया गया हैं,यदि हम थोड़ा और गहराई में जाकर राम के चरित्र को समझे तो सामाजिक जीवन में आनें वाली कई समस्यओं का उत्तर उनका जीवन देता हैं जैसें

● आत्मविकास के 9 मार्ग


#१.आदर्श पुत्र :::



श्री राम भगवान अपने पिता के सबसे आदर्श पुत्र थें, एक ऐसे समय जब पिता उन्हें वनवास जानें के लिये मना कर रहें थें,तब राम ही थे जिन्होनें अपनें पिता दशरथ को सूर्यवंश की परम्परा बताते हुये कहा कि

रघुकुल रिती सदा चली आई |
प्राण जाई पर वचन न जाई ||


एक ऐसे समय जब मुश्किल स्वंय पर आ रही हो  पुत्र अपनें कुल की परंपरा का पालन करनें के लिये अपने पिता को  कह रहा हो यह एक आदर्श पुत्र के ही गुण हैं.



दूसरा जब कैकयी ने राम को वनवास जानें का कहा तो उन्होनें निसंकोच होकर अपनी सगी माता के समान ही कैकयी की आज्ञा का पालन कर परिवार का  बिखराव होनें से रोका.
आज के समय में जब पुत्र अपनें माता - पिता के फैसलों का विरोध कर घर में महाभारत कर देतें हैं,राम का जीवनचरित्र यह संदेश देता हैं,कि आदर्श पुत्र कैसा हो.

भगवान श्री राम के जीवन की दूसरी घटना जो उन्हें पिता का आज्ञाकारी बनाकर आदर्श पुत्र के रूप में स्थापित करती हैं वह यह कि जब श्री राम ने सीता स्वंयवर के समय शिवधनुष तोड़ा तो राजा जनक ने उन्हें सीता का हाथ थामने को कहा किंतु श्री राम ने पिता की अनुपस्थिति की स्थिति में और पिता की आज्ञा के अभाव में सीता का हाथ थामने से राजा जनक को आदरपूर्वक मना कर दिया.

भगवान श्री राम ने राजा जनक को जिस तरह पिता के अभाव में विवाह हेतू मना किया उससे पता चलता है कि भगवान श्री राम का प्रेरणाप्रद चरित्र सदैव अविस्मरणीय रहेगा.


#२.आदर्श मित्र :::



राम मित्रता के आदर्श की भी प्रतिमूर्ति थे.जिन्होंने अपनें परम प्रिय मित्रों में सुग्रीव और निषादराज को स्थान दिया क्योंकि दोनों ने  राम के संघर्षकाल में  भरपूर सहयोग और संसाधन मुहेया करायें थे,कहा गया हैं,कि


धीरज,धर्म,मित्र अरू नारी |
आपतकाल परखिये चारी || 



वास्तव में आदर्श मित्र भी वही होता हैं,जो मित्र के अच्छे समय में दूर बैठकर उसकी ख़ुशी में  शामिल हो और मित्र के दुखी होनें पर उसको को सहारा देने वाला पहला हो.


राम ने इसी भाव को सदैंव समझा और निषादराज जैसे छोटे से इंसान को भी अपने समकक्ष बिठाकर मित्रता के आदर्श प्रतिमान स्थापित कियें.

#३.आदर्श भाई :::


सामाजिक और पारिवारिक जीवन में लोग राम - लक्ष्मण जैसे भाई होनें की उपमा देते हैं,यह उपमा व्यर्थ कदापि नही हैं.एक ऐसे समय में जब राम अकेले वनवास को जा रहे थे लक्ष्मण को साथ ले गये तथा भरत और शत्रुघ्न को लक्ष्मण के क्रोध से बचाकर परिवार को टूटन से बचाया क्योंकि राम को भलीभाँति ज्ञात था,कि लक्षमण का स्वभाव उग्र हैं,और वह कभी भी उग्र होकर किसी को  कुछ भी कह, कर सकतें हैं.


एक आदर्श भाई वही होता हैं,जिसे अपनें छोटे भाई बहनों के स्वभाव, आवश्यकता का भलीभाँति ज्ञान हो.


इसी प्रकार  भरत ने राम की अनुपस्थिति में राजा बनना अस्वीकार कर दिया यह राम का अपनें भाई के प्रति अनुराग का ही नतीजा था.जिसका प्रतिफल राम को मिला.


#४.कुशल नेतृत्वकर्ता :::


भगवान श्री राम ने युद्ध में परम बलशाली रावण को अपने कुशल नेतृत्व की सहायता से ही पराजित कर विजय हासिल की.यह उनके कुशल नेतृत्व का ही नतीजा था,कि युद्ध में नर से लेकर वानर तक को संगठित किया और  समुद्र में सेतू बांध दिया  अन्यथा समुद्र में सेतू बांधना इतना आसान काम नही था.


युद्ध के पूर्व भी भगवान राम ने युद्ध से होनें वाली मानवीय क्षति के प्रति रावण को चेताकर युद्ध टालनें का प्रयास किया किन्तु रावण का अंहकार राम की नितिपूर्ण बातों को समझ न सका.


एक कुशल नेतृत्वकर्ता वही होता हैं,जो सदैव अपने अधीनस्थों को होनें वाली लाभ हानि को भली प्रकार समझे राम नें भी यही कार्य रावण को युद्ध से होनें वाली हानि को समझाकर करना चाहा था.


कुशल‌ नेतृत्वकर्ता का एक गुण यह भी होता हैं कि वह अपनी सफलता का श्रेय अपने अधिनस्थों को देता हैं, भगवान श्री राम ने भी यही किया विश्वामित्र के साथ यज्ञ रक्षा के लिए राक्षसों का वध किया लेकिन श्रेय स्वयं न‌ लेकर गुरुओं की शिक्षा को दिया। 

उसी प्रकार लंका विजय का भी सम्पूर्ण श्रेय स्वयं न‌ लेकर सम्पूर्ण वानर सेना, हनुमान, जामवंत, सुग्रीव, विभिषण आदि योद्धाओं को दिया।


#५.आदर्श राजा :::


एक ऐसा समय जब राम रावण को हराकर इस प्रथ्वी के परम प्रतापी राजा में गिने जा रहे थें.राम ने प्रजा के बहुमत को सम्मान देते और न चाहते हुए भी  सीता को अपने जीवन और सार्वजनिक जीवन से दूर करना उचित समझा.यह आज के लोकतांत्रिक समाज के लिये बहुत बड़ी सीख हैं,जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनें जानें के बावजूद सार्वजिक जीवन में भ्रष्टाचार,पद के दुरूपयोग,और बहुमत के विरूद्ध कार्य करतें हैं.


राम को यह भलीभाँति परिचय था,कि राजा वही बन सकता हैं,जिसको समाज का निम्न वर्ग भी अपना प्रतिनिधी मानें और राम ने शबरी के झूठे बैर खाकर समाज में  उदाहरण दिया कि राजा को समाज के निम्न तबके के प्रति कैंसा व्यहवार रखना चाहियें.



#६.दूसरों की भूमि हड़पने के विरुद्ध



श्री राम ने अयोध्या से जब वनवास की शुरुआत की थी तब भगवान राम अपने साथ राजा की छवि त्यागकर वनवास को निकले थे। श्री राम ने अपने बाहुबल और विनम्रता के आधार पर अयोध्या से लेकर लंका तक बाली, रावण, जैसे प्रतापी योद्धाओं को परास्त किया लेकिन किसी दूसरे राज्य की एक इंच जमीन भी नहीं हड़पी । 


दूसरों की भूमि नहीं हड़पने का यह सिद्धांत आज के शक्तिशाली राष्ट्रों के लिए सीख हैं जो में येन-केन दूसरे राष्ट्रों की ज़मीन हड़पने के लिए लालायित रहते हैं ।


#७.विनम्र स्वभाव


भगवान श्री राम विनम्रता की आदर्श प्रतिमूर्ति थे,ये बात उन्होनें कई बार सिद्ध की हैं चाहे वह विश्वामित्र से शिक्षा ग्रहण करनें का काल रहा हो,सीता स्वंयवर में भगवान परशुराम से शिव का धनुष तोड़ने के बाद का संवाद हो,  कैकई द्धारा 14 वर्ष का वनवास मांगना हो, हनुमान सुग्रीव और विभीषण से मिलन हो भगवान राम ने हर जगह विनम्र रहकर ही संवाद किया । 

भगवान राम ने न केवल सजीव बल्कि अपने वनवास काल में कई निर्जीव वस्तुओं में भी सजीव का भाव देखा और हाथ जोडकर सीता का पता बतानें की प्रार्थना की ,यही बात भगवान राम को विनम्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित करती हैं।



# ८. एक विवाह के पक्षधर


भगवान राम माता सीता के प्रति हमेशा वफादारी रहें, ऐसे समय में जब बहु-विवाह राजा के लिए बहुत ही सामान्य बात थी, उस समय भी भगवान राम ने सीता के अलावा अन्य स्त्री को पत्नि नहीं मानने का जो उदाहरण प्रस्तुत किया वह भी भगवान राम को आदर्श पुरुष की श्रेणी में खड़ा करता है ।


अश्वमेध यज्ञ के समय अनेक लोगों ने भगवान राम को दशरथ की भी तीन पत्नियां होने का हवाला देकर विवाह करने का आग्रह किया था और कहा था कि अश्वमेध यज्ञ बिना पत्नि के संपन्न नहीं हो सकता इस पर भी भगवान राम ने यही कहा कि मैं सीता के अलावा किसी दूसरी स्त्री को पत्नी नहीं स्वीकार सकता चाहे कुछ भी हो जाए ।


*भगवान राम के बाल्यकाल का एक प्रेरक प्रसंग*

_कैकेयी वर्षों पुराने स्मृति कोष में चली गई,  उन्हें वह दिन याद आ गया जब वे राम और भरत को बाण संधान की प्रारम्भिक शिक्षा दे रहीं थीं।_

_जब उन्होंने भरत से घने वृक्ष की डाल पर चुपचाप बैठे हुए एक कपोत पर लक्ष्य साधने के लिए कहा तो भरत ने भावुक होते हुए अपना धनुष नीचे रख दिया था और कैकेयी से कहा था -- माँ ! किसी का जीवन लेने पर यदि मेरी दक्षता निर्भर है तो मुझे दक्ष नहीं होना। मैं इस निर्दोष पक्षी को अपना लक्ष्य नहीं  बना सकता, उसने क्या बिगाड़ा है जो उसे मेरे लक्ष्य की प्रवीणता के लिए अपने प्राण गंवाने पड़ें?_

    

_कैकेयी बालक भरत के हृदय में चल रहे भावों को बहुत अच्छे से समझ रहीं थीं। ये बालक बिल्कुल यथा नाम  तथा गुण ही है। भावों से भरा हुआ , जिसके हृदय में प्रेम  सदैव विद्यमान रहता है।_

_तब कैकेयी ने राम से कहा -- पुत्र राम! उस कपोत पर अपना लक्ष्य साधो। राम ने क्षण भी नहीं  लगाया और उस कपोत को भेद कर रख दिया था।_

_राम के सधे हुए निशाने से प्रसन्न कैकेयी ने राम से पूछा था --  पुत्र!  तुमने उचित-अनुचित का विचार नहीं किया? तुम्हें उस पक्षी पर तनिक भी दया न आयी?_

_राम ने भोलेपन से कहा था -- माँ ! मेरे लिए जीवन से अधिक महत्वपूर्ण मेरी माँ की आज्ञा है । उचित-अनुचित का विचार करना, ये माँ का काम है। माँ का संकल्प, उसकी इच्छा,  उसके आदेश को पूरा करना ही मेरा लक्ष्य है । तुम मुझे सिखा भी रही हो और  दिखा भी रही हो।  तुम हमारी माँ ही नहीं  गुरु भी हो, यह किसी भी पुत्र का, शिष्य का कर्तव्य होता है कि वह अपने गुरु, अपनी माँ के दिखाए और सिखाए गए मार्ग पर निर्विकार,  निर्भीकता के साथ आगे बढ़े, अन्यथा गुरु का सिखाना और दिखाना सब व्यर्थ हो जायगा।_

_कैकेयी ने आह्लादित होते हुए राम को अपने अंक में भर लिया था, और दोनों बच्चों को लेकर राम के द्वारा गिराए गए कपोत के पास पहुँच गईं ।_

_भरत आश्चर्य से उस पक्षी को देख रहे थे, जिसे राम ने अपने पहले ही प्रयास में मार गिराया था। पक्षी के वक्ष में बाण घुसा होने के बाद भी उन्हें रक्त की एक बूंद भी दिखाई नहीं दे रही थी।_

_भरत ने उस पक्षी को हाथ में लेते हुए कहा-- माँ ! यह क्या? ये तो खिलौना है। तुमने कितना सुंदर प्रतिरूप बनाया इस पक्षी का। मुझे ये सच का जीवित पक्षी प्रतीत हुआ था। तभी मैं इसके प्रति दया के भाव से भर गया था, माया के वशीभूत होकर मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया,  इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ।_

_तब कैकेयी ने बहुत ममता से कहा था -- पुत्रो!  मैं तुम्हारी माँ हूँ । मैं तुम्हें बाण का संधान सिखाना  चाहती हूँ,  वध का विधान नहीं । क्योंकि लक्ष्य भेद में प्रवीण होते ही व्यक्ति स्वयं जान जाता है कि किसका वध करना आवश्यक है और कौन अवध है।_

_किंतु स्मरण रखो, जो दिखाई देता है,  आवश्यक नहीं कि वह वास्तविकता हो और ये भी आवश्यक नहीं कि जो वास्तविकता हो वह तुम्हें दिखाई दे।_

_कुछ जीवन, संसार की मृत्यु के कारण होते हैं, तो कुछ मृत्यु संसार के लिए जीवनदायी होती हैं।_

_तब भरत ने बहुत नेह से पूछा था-- माँ ! तुम्हारे इस कथन का अर्थ समझ नहीं आया । हमें कैसे पता चलेगा कि इस जीवन के पीछे मृत्यु है या इस मृत्यु में जीवन छिपा हुआ है?_ 

_वृक्ष के नीचे शिला पर बैठी हुई कैकेयी ने एक अन्वेषक दृष्टि राम और भरत पर डाली। उन्होंने देखा कि दोनों बच्चे धरती पर बैठे हुए बहुत धैर्य से उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। धैर्य विश्वासी चित्त का प्रमाण होता है और अधीरता अविश्वासी चित्त की चेतना। कैकेयी को आनंद मिला कि उसके बच्चे विश्वासी चित्त वाले हैं।_

_उन्होंने बताया था -- असार में से सार को ढूंढना और सार में से असार को अलग कर देना ही संसार है । असार में सार देखना प्रेम दृष्टि है तो सार में से असार को अलग करना ज्ञान दृष्टि ।_

_पुत्र भरत ! तुम्हारा चित्त प्रेमी का चित्त है क्योंकि तुम्हें मृणमय भी चिन्मय दिखाई देता है और  पुत्र राम!  तुम्हारा चित्त  ज्ञानी का चित्त है क्योंकि तुम चिन्मय में छिपे मृणमय को स्पष्ट देख लेते हो।_

_राम ने उत्सुकता से पूछा -- माँ ! प्रेम और ज्ञान में क्या अंतर होता है ?_

_वही अंतर होता है पुत्र , जो कली और पुष्प में होता है । अविकसित ज्ञान प्रेम कहलाता है और पूर्ण विकसित प्रेम,  ज्ञान कहलाता है ।_

_हर सदगृहस्थ  अपने जीवन में ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और शक्ति चाहता है क्योंकि संतान माता-पिता की प्रवृति और  निवृत्ति का आधार होते हैं। इसलिए वे अपनी संतानों के नाम उनमें व्याप्त गुणों के आधार पर रखते हैं। तुम्हारी तीनों माताओं और महाराज दशरथ को इस बात की प्रसन्नता है कि हमारे सभी पुत्र यथा नाम तथा गुण हैं।_

_भरत ! राम तुम सभी भाइयों में श्रेष्ठ है, ज्ञानस्वरूप है क्योंकि उसमें शक्ति, भक्ति, वैराग्य सभी के सुसंचालन की क्षमता है । इसलिए तुम सभी सदैव राम के मार्ग पर,  उसके अनुसार,  उसे धारण करते हुए चलना क्योंकि वह ज्ञान ही होता है जो हमारी प्रवृतियों का सदुपयोग करते हुए हमारी निवृत्ति का हेतु होता है।_


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