पंचकोसी यात्रा |
#पंचक्रोसी या पंचकोसी यात्रा क्या हैं
उज्जैन की पंचकोसी यात्रा की बात करने से पहले हम उज्जैन की बात कर लेते हैं, उज्जैन धार्मिक और पोराणिक नगरी हैं.जहाँ द्धादश ज्योर्तिलिंगों में से एक बाबा महाकाल विराजित हैं.बाबा महाकाल महाकाल वन के मध्य में विराजित हैं,जिनके चारों और चारों दिशाओं में चार द्धारपाल भी शिवलिंग रूप में विराजित हैं.
व्यक्ति महाकाल की भक्ति इन चारों द्धारपालों जो कि शिवलिंग के रूप में विराजित हैं,महाकाल वन में भ्रमण के साथ करें,तो उसे न केवल महाकाल की कृपा प्राप्त होती हैं.
वरन व्यक्ति स्वास्थ्य ,योवन,धन,ऐश्वर्य और चिरकालिक परमानंद को भी प्राप्त करता हैं.
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उज्जैन में अनादिकाल से पंचक्रोसी या पंचकोसी यात्रा चल रही हैं. जिसे उज्जैन की पंचकोसी कहते हैं।
उज्जैन की पंचकोसी यात्रा का वर्णन स्कंदपुराण में भी हैं.जिसमें कहा गया हैं,कि काशी में जीवनभर रहनें से जितना पुण्य अर्जित होता हैं,उतना पुण्य बैशाख मास में मात्र पाँच दिन महाकाल वन में प्रवास करनें पर ही मिल जाता हैं.
इस यात्रा को पंचकोसी इसलियें कहा जाता हैं,क्योंकि यात्रा के दोरान श्रद्धालुओं को प्रत्येक पाँच कोस पर विश्राम करना पड़ता हैं.
कोस मालवी भाषा का शब्द है और एक कोस चार किलोमीट़र के बराबर माना जाता हैं,इस हिसाब से श्रद्धालुओं को बीस किलोमीट़र रोज पैदल चलकर आराम करना होता हैं.किंतु शहरी विस्तार एँव उज्जैन के आसपास बढ़ती आबादी ने इस यात्रा को 118 किमी के करीब कर दिया हैं.
उज्जैन में पंचकोसी यात्रा का कब शुरू होती हैं
उज्जैन में पंचकोसी यात्रा प्रतिवर्ष बैशाख कृष्ण दशमी से शुरू होकर बैशाख अमावस्या को समाप्त होती हैं.
पंचकोसी यात्रा पट़नी बाजार उज्जैन स्थित नागचन्द्रेश्वर भगवान के दर्शन कर आरंभ की जाती हैं.यहाँ श्रद्धालु भगवान नागचन्द्रेश्वर को नारियल अर्पित करतें है.ऐसी मान्यता हैं,कि भगवान नागचन्द्रेश्वर के दर्शन से श्रद्धालुओं को बल की प्राप्ति होती हैं.जिससे यात्रा सुगमतापूर्वक संपन्न होनें में मदद मिलती हैं.
एक अन्य मान्यता यह भी प्रचलित हैं,कि महाकाल वन में यात्रा के दोरान सांप तथा अन्य विषेलें जीव - जंतु श्रद्धालुओं को परेशान न करें इस कामना से भगवान नागचन्द्रेश्वर से प्रार्थना की जाती हैं.
# पंचकोसी यात्रा का पहला पडाव कौंन सा है
नागचन्द्रेश्वर से बल लेकर श्रद्धालु अपनें पहलें पड़ाव (विश्राम स्थल) पिंगलेश्वर महादेव की और निकल पड़तें हैं.
नागचन्द्रेश्वर से पिंगलेश्वर की दूरी 12 किलोमीट़र हैं.यहाँ रूककर श्रद्धालु पिंगलेश्वर महादेव के दर्शन करतें हैं.
पिंगलेश्वर महादेव के दर्शन करनें से धर्म और धन की प्राप्ति होती हैं.
पिंगलेश्वर महादेव का नामकरण पिंगला नामक स्त्री के नाम से हुआ हैं.जिसके माता पिता का देहांत होनें से पिंगला माता - पिता वियोग में अकेली हो गई और दुखी रहनें लगी.
एक दिन धर्मराज भेष बदलकर पिंगला को इस दुख का कारण बताकर कहा कि पूर्व जन्म में तुम बहुत सुंदर कन्या थी. और वैश्यावृत्ति करती थी, तुम्हारें रूप के वशीभूत होकर एक ब्राह्म्ण अपनी पत्नि को छोड़कर तुम्हारें पास रहनें लगा,एक दिन एक शूद्र ने ब्राह्म्ण की हत्या कर दी.
इस हत्या से दुखी होकर ब्राह्मण के माता - पिता ने पिंगला को श्राप दिया कि तुम पति वियोग में तड़पोगी.इसी श्राप के कारण तुम्हारी यह स्थिति हुई हैं.
पिंगला द्धारा श्राप से मुक्त होनें का उपाय पूछनें पर धर्मराज ने महाकाल वन की पूर्व दिशा में स्थित शिवलिंग के दर्शन करनें व पूजन करनें को कहा.
कालान्तर में पिंगला इसी शिवलिंग की आराधना कर शिवलिंग में अन्तर्ध्यान हो गई.पिंगला के नाम से ही यह शिवलिंग पिंगलेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ.
श्रद्धालु यहाँ रात रूककर आराम करतें हैं.रात को यहाँ अनेक संगठनों और सामूहिक मंड़लियों द्धारा भजन ,सांस्कृतिक कार्यक्रमों और दन्तकथाओं का आयोजन होता हैं.
रात यहाँ रूकनें वाला व्यक्ति आनंद और भक्ति में सरोबार हुयें बिना नही रह सकता.
श्रद्धालु यहाँ रात रूककर आराम करतें हैं.रात को यहाँ अनेक संगठनों और सामूहिक मंड़लियों द्धारा भजन ,सांस्कृतिक कार्यक्रमों और दन्तकथाओं का आयोजन होता हैं.
सांस्कृतिक कार्यक्रम |
रात यहाँ रूकनें वाला व्यक्ति आनंद और भक्ति में सरोबार हुयें बिना नही रह सकता.
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#४.पंचकोसी यात्रा का दूसरा पड़ाव कौंन सा हैं?
पिंगलेश्वर से बैशाख कृष्ण एकादशी को निकलकर श्रृद्धालु शनिमंदिर त्रिवेणी पहुँचते हैं, कुछ देर विश्राम और मोक्षदायी क्षिप्रा नदी में स्नान कर शनिदेव के दर्शन करतें हैं और यहाँ तेल अर्पित करते हैं
यहाँ से निकलकर राघोपिपलिया पहुँचतें हैं,जहाँ ग्रामीणों और सामाजिक संस्थाओं द्धारा भंड़ारों और स्वल्पहार से यात्रियों का स्वागत किया जाता हैं.
रास्तें में अनेक शिव,पार्वती,कृष्ण का स्वांग धरकर यात्रा करनें वाले श्रद्धालुगण मिलते हैं,जो रास्तेभर लोगों का उत्साहवर्धन करतें रहते हैं.
पिंगलेश्वर से करोहन की दूरी 23 किमी पढ़ती हैं,जो श्रद्धालुओं की श्रद्धा के सामनें बहुत छोटी पड़ती हुई मालूम पढ़ती हैं.तभी तो कई श्रद्धालुओं द्धारा यह दूरी बिना किसी रूकावट़ के एक ही साँस में पूरी कर दी जाती हैं.
बैशाख की तपती शाम में करोहन पहुँचकर मन शीतलता से सरोबार हो जाता हैं,क्योंकि यहाँ चलनें वालें फव्वारें मन को असीम शीतलता प्रदान करतें हैं.इन फव्वारों में नहाकर दिनभर की थकावट़ पलभर में गायब हो जाती हैं.
रात को पड़ाव पर लोगों द्धारा कंड़े पर सिकनें वाली बाटी जब देशी घी में डूबती हैं,तो इसकी खूशबू भूख को चार गुना कर देती हैं.
यहाँ भी शासन प्रशासन द्धारा श्रद्धालुओं की सुख सुविधाओं का बहुत अच्छा इंतजाम किया जाता हैं,जिनमें खानें पीनें से लेकर अस्पताल की सुविधा भी सम्मिलित हैं.
करोहन में रातभर भजन , नाट्य मंड़लियों,और कथाओं का आयोजन चलता रहता हैं, इन भजन मण्डलियों के रागों में ठेठ मालवा की ठसक कानों को कई दिनों तक गुंजायमान रखती हैं । गुंजती आवाज के बीच प्रशासन द्धारा उपलब्ध कराई गई .पेट्रोलियम जैली को हाथ पांव पर लगाकर सोनें पर जो नींद आती हैं,उसके बाद कब सुबह हो जाती हैं,पता नही चलता .
सुबह बैशाख कृष्ण द्धादसी को कायावरोहणश्वर महादेव को जल और नारियल अर्पित कर सुंदर ,स्वस्थ शरीर की कामना की जाती हैं.
कायावरोहणश्वर महादेव के बारें में विस्तारपूर्वक कथा स्कंदपुराण के अवंतिखंड़ में लिंग महात्म्य विषयक 1 से 62 श्लोक में मिलती हैं.
कायावरोहणश्वरश्यापि उत्पत्ति श्रुणु पार्वति |
यस्या : श्रवणमात्रेण न: नर कायवान भवेत ||
सृष्टि की उत्पत्ति की इच्छा से ब्रम्हा जी ने अपनें दायें हाथ के अंगूठे से दक्ष तथा बाँए हाथ से कन्या को उत्पन्न किया .जिनका आपस में विवाह हुआ और इन दोंनों से 50 कन्याओं का जन्म हुआ.
इन पचास कन्याओं में से दस धर्मराज को,तेरह कश्यप मुनि को ,सत्ताइस चन्द्रमा ब्याही गई.किन्तु चन्द्रमा केवल एक ही पुत्री से स्नेह रखता था.
अन्य 26 पुत्रीयाँ इससे दुखी रहनें लगी और अपनें इस दुख को पिता से कहनें लगी,तब दक्ष ने कुपित होकर चन्द्रमा को श्राप दे दिया.
श्राप से दुखी चन्द्रमा ने भी दक्ष को श्राप दिया कि तुम प्राचेतस के यहाँ जन्म लोगे.
प्राचेतश के यहाँ जन्म लेनें पर दक्ष ने अश्वमेघ करवाया जिसमें शिवजी को आमंत्रित नही किया ,जिससे क्रोधित होकर भद्रकाली आदि ने यज्ञ को तहस नहस कर दिया.
यज्ञ में शामिल देव,ऋषि आदि देहविहिन हो गये,जब ये लोग त्राहिमाम - त्राहिमाम कर ब्रम्हाजी के पास पहुँचे तो ब्रम्हा जी ने इन्हें महाकाल वन स्थित शिवलिंग के दर्शन करनें को कहा.
शिवलिंग के दर्शन कर समस्त देव, ऋषि आदि पुन: सुंदर काया को प्राप्त हुयें.तभी से यह शिवलिंग कायावरोहणेश्वर के रूप में प्रसिद्ध हुआ.
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# ५.नलवा उप पड़ाव :::
कायावरोहणेश्वर से सुबह यात्रा शुरू की जाती हैं,सिर पर गठरी झोला ड़ाले श्रद्धालुओं का कारंवा लगातार अपनी अगली मंजिल की और बढ़ता जाता हैं.रास्तें के दोंनों और लगनें वाले पेड़ों से राहगीरों को असीम छाव मिलती हैं.
रास्तें में अनेक जगहों पर ग्रामीणों द्धारा जूतें,चप्पल,खानें - पीनें की वस्तुओं की दुकान लगाई जाती हैं.साथ ही कई ग्रामीणों द्धारा अपने घरों में चट़ाई,खटिया बिछाकर यात्रियों के सुस्तानें की व्यवस्था की जाती हैं.
बीमार यात्रीयों के लियें रास्तेभर प्रशासन और अनेक स्वंयसेवी संगठनों द्धारा चलित चिकित्सा सेवा मुहेया कराई जाती हैं.
करोहन से नलवा उप पड़ाव की 21 किमी दूरी तय करनें में श्रद्धालुओं को पूरा दिन लग जाता हैं.और रात को प्रशासन और ग्रामीणों द्धारा बनायें गये अस्थाई टेंट़ो में रात बितानी पड़ती हैं.
नलवा उप पड़ाव पर वही श्रद्धालु ज्यादा रात रूकतें हैं,जिन्हें यहाँ पहुँचतें - पहुँचते रात के 9 -10 बज जातें है.
कई लोग नलवा उप पड़ाव पर न रूकते हुये सीधे यहाँ से 6 किमी दूरी पर स्थित बिल्केश्वर महादेव अम्बोंदिया रात रूकतें हैं,क्योंकि सुबह जल्दी उठकर बिल्केश्वर महादेव के दर्शन का पुण्य कमाना चाहतें हैं.
# ७.अम्बोंदिया पड़ाव :::
रात को यहाँ रूके श्रद्धालु सुबह उठकर ,स्नानादि से निवृत्त होकर भगवान बिल्केश्वर को बिल्व पत्र और जल अर्पित करतें हैं.
बिल्केश्वर महादेव के बारें में स्कंदपुराण के अंवतिखण्ड़ में वर्णन मिलता हैं.
एक बार जगत पिता नें श्रृष्टि के कल्याण के उद्देश्य से ध्यान किया जिससे कल्पवृक्ष की उत्पत्ति हुई.कल्पवृक्ष के निचें एक बिल्व का पेंड़ भी था,जिसके एक पत्तें के निचें एक पुरूष आराम कर रहा था.
ब्रम्हा जी ने इसे बिल्व नाम दिया ,कुछ समय पश्चात वहाँ इन्द्र वहाँ आये और बिल्व से प्रथ्वी पर राज करनें को कहा.किन्तु बिल्व ने एक शर्त रख दी और कहा कि वह तभी राज करेगा जब उसे इन्द्र का वज्र मिलें.
इन्द्र ने बिल्व की यह इच्छा जानकर उसे यह वर दिया कि वह जब भी वज्र को याद करेगा वह उसके पास आ जायेगा.
इन्द्र के इस वर को पाकर बिल्व प्रथ्वी पर राज करनें लगा.राज करतें करतें बिल्व और कपिल मुनि में गहरी मित्रता हो गई.
एक समय कपिल मुनि और बिल्व धर्मवार्ता कर रहें थे.कि अचानक दोंनों के बीच किसी बात को लेकर विवाद हो गया और बात युद्ध तक आ गई.तब क्रोधित होकर बिल्व ने वज्र से कपिलमुनि को शरीर विहिन कर दिया.
कपिलमुनि ब्रम्ह विद्या के बल पर पुन: शरीर प्राप्त कर ब्रम्हा के पास पहुँचे ओर कहा कि है ! प्रभु मुझे वरदान दो कि इन्द्र के वज्र का असर मुझ पर नही हो.
ब्रम्हा जी ने वरदान देकर कपिलमुनि को भयमुक्त करतें हुये कहा कि तथास्तु !!!
इसके पश्चात कपिलमुनि और बिल्व में एकबार फिर युद्ध हुआ किन्तु इन्द्र के वज्र का उसपर कोई असर नही हुआ.
बिल्व इस स्थिति को देखकर भगवान विष्णु के पास गये और तपस्या कर वरदान मांगा कि मुझे ऐसा वरदान दो कि कपिलमुनि मुझसे ड़रें.विष्णु भगवान बिल्व को वरदान देकर कपिलमुनि के पास जाकर कहनें लगें कि वह बिल्व को जाकर कहे कि वह उनसे ड़रते हैं.
कपिलमुनि द्धारा भगवान विष्णु को मना करनें पर कपिलमुनि और विष्णु में जमकर युद्ध हुआ जिसे ब्रम्हा जी ने बीच बचाव कर खत्म करवाया.
भगवान विष्णु के वरदान को असफ़ल पाकर बिल्व इंद्र के सामनें रूदन करनें लगें.तब इन्द्र ने बिल्व को महाकाल वन की पश्चिम दिशा में स्थित शिवलिंग के दर्शन और उपासना करनें को कहा.
इन्द्र के कहे अनुसार बिल्व द्धारा शिवलिंग की उपासना करनें पर कपिलमुनि बिल्व से मित्रता करनें आये.
महाकाल वन स्थित इस शिवलिंग की उपासना करते हुये बिल्व में शिव के दर्शन कपिलमुनि को हुये.तब कपिलमुनि ने बिल्व से कहा कि बिल्व तुमनें मुझे जीत लिया हैं.
तभी से यह शिवलिंग बिल्केश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.जो भी व्यक्ति इस शिवलिंग के दर्शन पूजन बिल्व पत्र के साथ करता हैं.वह दिग्विजय का आशीर्वाद महाकाल से प्राप्त करता हैं.
बिल्केश्वर महादेव मंदिर अत्यंत रमणीय स्थल हैं,जिसके चारों और गंभीर जलाशय हैं.बरसात में यह मंदिर टापू में तब्दील हो जाता हैं.जहाँ सैलानियों का तांता लगता हैं.
अम्बोंदिया में असहाय ,निराश्रित वृद्धजनों के लिये सेवाधाम आश्रम संचालित होता हैं.यहाँ अनेक सामाजिक संस्थाए और व्यक्ति वृद्धों की सेंवा में लगे देखे जा सकतें हैं.
कपिलमुनि ब्रम्ह विद्या के बल पर पुन: शरीर प्राप्त कर ब्रम्हा के पास पहुँचे ओर कहा कि है ! प्रभु मुझे वरदान दो कि इन्द्र के वज्र का असर मुझ पर नही हो.
ब्रम्हा जी ने वरदान देकर कपिलमुनि को भयमुक्त करतें हुये कहा कि तथास्तु !!!
इसके पश्चात कपिलमुनि और बिल्व में एकबार फिर युद्ध हुआ किन्तु इन्द्र के वज्र का उसपर कोई असर नही हुआ.
बिल्व इस स्थिति को देखकर भगवान विष्णु के पास गये और तपस्या कर वरदान मांगा कि मुझे ऐसा वरदान दो कि कपिलमुनि मुझसे ड़रें.विष्णु भगवान बिल्व को वरदान देकर कपिलमुनि के पास जाकर कहनें लगें कि वह बिल्व को जाकर कहे कि वह उनसे ड़रते हैं.
कपिलमुनि द्धारा भगवान विष्णु को मना करनें पर कपिलमुनि और विष्णु में जमकर युद्ध हुआ जिसे ब्रम्हा जी ने बीच बचाव कर खत्म करवाया.
भगवान विष्णु के वरदान को असफ़ल पाकर बिल्व इंद्र के सामनें रूदन करनें लगें.तब इन्द्र ने बिल्व को महाकाल वन की पश्चिम दिशा में स्थित शिवलिंग के दर्शन और उपासना करनें को कहा.
इन्द्र के कहे अनुसार बिल्व द्धारा शिवलिंग की उपासना करनें पर कपिलमुनि बिल्व से मित्रता करनें आये.
महाकाल वन स्थित इस शिवलिंग की उपासना करते हुये बिल्व में शिव के दर्शन कपिलमुनि को हुये.तब कपिलमुनि ने बिल्व से कहा कि बिल्व तुमनें मुझे जीत लिया हैं.
तभी से यह शिवलिंग बिल्केश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.जो भी व्यक्ति इस शिवलिंग के दर्शन पूजन बिल्व पत्र के साथ करता हैं.वह दिग्विजय का आशीर्वाद महाकाल से प्राप्त करता हैं.
बिल्केश्वर महादेव मंदिर अत्यंत रमणीय स्थल हैं,जिसके चारों और गंभीर जलाशय हैं.बरसात में यह मंदिर टापू में तब्दील हो जाता हैं.जहाँ सैलानियों का तांता लगता हैं.
अम्बोंदिया में असहाय ,निराश्रित वृद्धजनों के लिये सेवाधाम आश्रम संचालित होता हैं.यहाँ अनेक सामाजिक संस्थाए और व्यक्ति वृद्धों की सेंवा में लगे देखे जा सकतें हैं.
# ८.कालियादेह महल उप - पड़ाव ::::
अम्बोंदिया से कालियादेह उप - पड़ाव की दूरी भी 21 किमी पड़ती हैं.रास्तें में अनेक जगहों पर कुछ - कुछ ऐसी जगह हैं,जहाँ रूककर यात्री भोजन बनानें की व्यवस्था कर लेतें हैं.कई यात्री तो अपनें परिचित गाँव वालों के यहाँ भी रूकतें हैं.
यह देखा जाता हैं,कि अनेक लोग यात्रा के समय अपनें परिचितों,रिश्तेदारों एंव भंड़ारों में भोजन करनें की अपेक्षा स्वंय अपनें हाथों से बनाकर भोजन करतें हैं.इसके पिछें मान्यता यही रही हैं,कि अपनें धर्म कर्म अपनें साथ ही रहें,दूसरों द्धारा सेंवा करनें से नष्ट़ नहीं हों.
मुझे ऐसा ही एक दल मिला जिसमें 17 महिला और पुरूष थें.ऐसे ही एक रास्तें में पड़नें वाले गांव के थे.किन्तु जब उनका गाँव आया तो उनमें से कोई भी अपनें घर नही गया,बल्कि घर के बच्चें और अन्य लोग उनसे मिलनें पड़ाव पर ही आ गयें.
कालियादेह महल पहुँच कर अनेक यात्री यहाँ बहती क्षिप्रा नदि में स्थित बावनकुंड़ों में स्नान करना नही भूलतें.
बावनकुंड़ों में स्नान करनें की अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं,जिनके अनुसार यहाँ स्नान करनें वालें पर भूत - प्रेत की छाया नहीं पड़ती हैं.
बात जब कालियादेह महल की हो रही हो,तो पंचकोसी यात्रा के बहानें उसके इतिहास को भी खंगाल लेतें हैं.कालियादेह महल एक टापू पर बना हैं,जिसके दोंनों ओर नदी बहती हैं.
इस महल का निर्माण मांडू के सुल्तान द्धारा सन् 1458 ई.में बनाया गया था.बाद में सिंधिया राजवंश ने इसका पुर्नद्धार किया.
उज्जैन में यह परंपरा हैं,कि राजा यहाँ रात नही रूक सकता हैं,क्योंकि यहाँ के राजा महाकाल हैं.
यह परंपरा भी सिंधिया राजवंश के समय ही पड़ी जब सिंधिया राजवंश की राजधानी उज्जैन थी .तब सिंधिया और होल्कर राजवंश में झगड़े बढ़नें लगें तो ज्योतिषियों नें सिंधिया राजवंश को राजधानी स्थानांतरित करनें की और यहाँ का राजा महाकाल को माननें की सलाह दी थी.
राजकाज के सिलसिले में यदि सिंधिया राजवंश को यहाँ आना पड़ता तो वे नगर के बाहर स्थित इसी महल में रात रूकतें थें.
कालियादेह महल में एक सूर्य मंदिर भी हैं,जहाँ सूर्य की पहली किरण सूर्य की मूर्ति के मुकुट पर पड़ती हैं. यह आश्चचर्यचकित करनें वाली बात हैं,कि मूर्ति काफी अंदर की ओर हैं,और मूर्ति के सामनें लम्बी गेलरी भी हैं.परन्तु सूर्य की किरण फिर भी अंदर आती हैं.
# ९.दुर्देश्वर पड़ाव (जैथल) :::
कालियादेह महल से दुर्देश्वर पड़ाव और दुर्देश्वर मंदिर 12 किमी पड़ता हैं.किन्तु यहाँ नलवा उप पड़ाव जैसी स्थिति देखनें को नही मिलती,नलवा में जहाँ बहुत कम श्रद्धालु रात रूकतें हैं,वही कालियादेह में अधिकांश श्रद्धालु रात रूकतें देखे जा सकतें हैं.
यात्रा के नियमानुसार दुर्देश्वर महादेव पहुँचनें का समय बैशाख सुदि १४ हैं,किन्तु अधिकांश यात्री इस समय तक क्षिप्रा नदी के रेती घाट तक पहुँच जातें हैं.
यात्रीयों की इसी हड़बड़ी और जल्दबाजी के कारण कई बार यात्रा तय समय से पहले शुरू हो जाती हैं.अनेक लोग निर्धारित पड़ावों पर न रूकते हुये अपनी सुविधानुसार मार्गों पर ही रूकजातें हैं.
दुर्देश्वर महादेव के बारें में स्कंदपुराण के अंवतिखंड़ में कथा हैं,जिसके अनुसार
एक समस अयोध्या के राजा को वन में एक अत्यन्त रूपवान कन्या मिली जिसे राजा ब्याह कर अपनें साथ ले आया.
रानी के सौन्दर्य के आगे राजा अपने समस्त राजकीय उत्तरदायित्व भूलकर जंगल में एक कुट़िया बनाकर रहनें लगा.
एक समय जब रानी कुट़िया के पड़ोस में तालाब पर नहानें गई तो वहाँ से रानी वापस कुट़िया में नही पहुँची.
राजा को पता चला की तालाब में दुर्दर (मेंढ़क) अधिक हैं, और रानी मेंढ़कों द्धारा अगवा कर ली गई होगी तो उन्होंनें सभी मेंढ़क को नष्ट करनें का आदेश दे दिया.इस पर मेंढ़कों का राजा तालाब से निकलकर आया और राजा को बताया कि रानी को मेंढ़क नहीं बल्कि नागलोक का राजा नागचूड़ ले गया हैं.
राजा नागचूड़ ने राजा द्धारा मांगनें पर रानी को सोंप दिया ,जब राजा ने रानी के मेढ़क रूप का कारण पूछा तो नागचूड़ ने बताया कि रानी मेरी पुत्री हैं.
एक बार इसनें गालव ऋषि का उपहास उड़ाया तो रिषी ने इसे दुर्दुर (मेंढ़क) होनें का श्राप दे दिया फलस्वरूप यह मेंढ़क बन गई हैं.
राजा ने इस योनि से मुक्ति का उपाय पूछा तो नागचूड़ ने कहा कि जब में अपनी कन्या का दान इक्ष्वाकु राजवंश को करूंगा और कन्या महाकाल वन की पश्चिम दिशा में स्थित शिवलिंग के दर्शन करेगी तो सारें पापों से मुक्त हो पुन: कन्या रूप में प्राप्त हो जायेगी.
दुर्दुर (मेंढ़क) योनि से मुक्ति के कारण ही यह लिंग दुर्देश्वर के रूप में प्रसिद्ध हुआ.
पंचकोसी यात्रा के क्रम तथा उज्जैन स्थित चौरासी महादेव के क्रम में यह अन्तिम मंदिर हैं.जहाँ श्रद्धालु माथा टेक अपने अंतिम गंतव्य की ओर उन्मुख होतें हैं.
यह यात्रा कई पीढ़ी
यह यात्रा कई पीढ़ी
# १०.दुर्देश्वर पड़ाव (जैथल) से उंड़ासा उप पड़ाव :::
जैथल से उंड़ासा उप पड़ाव की दूरी 16 किमी हैं,जहाँ यात्रीगण कुछ सुस्ता कर पुन: अपनी यात्रा आगे की ओर ले जातें हैं.
उंड़ासा तालाब हैं जिसमें कुछ यात्री बैशाख की गर्मी में स्नान कर शरीर को शीतलता प्रदान करतें हैं.
इसी तालाब में अनेक किसान खीरा,ककड़ी और खरबूजे की खेती करतें हैं.
इन खेतों से ताजा फल लेकर खानें का मज़ा ही कुछ ओर हैं.
इसी तालाब में अनेक किसान खीरा,ककड़ी और खरबूजे की खेती करतें हैं.
इन खेतों से ताजा फल लेकर खानें का मज़ा ही कुछ ओर हैं.
# ११.उंड़ासा उप पड़ाव से रेती मैंदान ::::
उंड़ासा उप पड़ाव से क्षिप्रा रेती घाट़ की दूरी 12 किमी हैं.पंचकोसी यात्रीयों का यह आखिरी मुकाम हैं.जहाँ यात्री क्षिप्रा में स्नान करतें हैं.और भगवान नागचन्द्रेश्वर से यात्रा की शुरूआत में लिये गये बल(ताकत) को वापस करतें हैं.
इसके लिये यात्री नागचन्द्रेश्वर को प्रतीक स्वरूप मिट्टी के घोड़े अर्पित करतें हैं
इसके लिये यात्री नागचन्द्रेश्वर को प्रतीक स्वरूप मिट्टी के घोड़े अर्पित करतें हैं
उज्जैन शहर में प्रवेश करनें से पूर्व शहर की अनेक संस्थाओं द्धारा यात्रीयों का भव्य स्वागत किया जाता हैं.जिनमें मंगल तिलक लगाना ,बेंड़ बाजों से स्वागत, फूलमालाओं से स्वागत और स्वल्पहार के साथ स्वागत शामिल हैं.
कुछ यात्री पंचकोसी यात्रा के पश्चात अष्टविशांति यात्रा पर निकल पड़तें हैं,जो जो कर्कराज मंदिर से प्रारंभ होकर केदारेश्वर,रणजीत हनुमान,काल भैरव,सिद्धनाथ,कालियादेह, मंगलनाथ होते हुये महाकाल मंदिर पर समाप्त हो जाती हैं.
पंचकोसी यात्रा धार्मिकता के साथ सामाजिकता,आर्थिकता ,स्वास्थता और भारत की गौरवशाली परंपरा को जीवित रखनें की यात्रा भी हैं.
बैशाख की गर्म हवाओं को जो यात्री झेलकर अपनी यात्रा पूरी कर लेता हैं.उसका कोलेस्ट्राल,मोटापा,थायराइड़,रक्तचाप जैसी बीमारीयाँ निश्चित रूप से एक हद तक नियंत्रित हो जाती हैं.
प्रतिवर्ष हजारों,लाखों की संख्या में आनें वाले यात्रीगण शहर और रास्तें में पढ़ने वालें गाँवों की अर्थव्यवस्था में योगदान देकर इन्हें चलायमान रखतें हैं.
उज्जैन की पंचकोसी यात्रा सामाजिक समरसता का भी अनूठा संगम हैं,जहाँ बिना किसी भेदभाव के यात्री साथ बेठते हैं,खातें - पीतें हैं,और साथ बैंठकर वार्तालाप करतें हैं.
पंचकोसी यात्रा में पाँच दिनों में यात्रियों के बीच ऐसे सम्बंधों की बुनियादी रखी जाती हैं,जो अनेक परिवारों में शादी ब्याह तक का सम्बंध बना देती हैं.
बैशाख की गर्म हवाओं को जो यात्री झेलकर अपनी यात्रा पूरी कर लेता हैं.उसका कोलेस्ट्राल,मोटापा,थायराइड़,रक्तचाप जैसी बीमारीयाँ निश्चित रूप से एक हद तक नियंत्रित हो जाती हैं.
प्रतिवर्ष हजारों,लाखों की संख्या में आनें वाले यात्रीगण शहर और रास्तें में पढ़ने वालें गाँवों की अर्थव्यवस्था में योगदान देकर इन्हें चलायमान रखतें हैं.
उज्जैन की पंचकोसी यात्रा सामाजिक समरसता का भी अनूठा संगम हैं,जहाँ बिना किसी भेदभाव के यात्री साथ बेठते हैं,खातें - पीतें हैं,और साथ बैंठकर वार्तालाप करतें हैं.
पंचकोसी यात्रा में पाँच दिनों में यात्रियों के बीच ऐसे सम्बंधों की बुनियादी रखी जाती हैं,जो अनेक परिवारों में शादी ब्याह तक का सम्बंध बना देती हैं.
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