एक देश एक चुनाव |
# एक देश एक चुनाव #
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं,और लोकतंत्र में चुनाव किसी त्योहार से कम नहीं होतें.
किंतु कई राजनेता,बुद्धिजीवीयों का मानना हैं कि रोज़ - रोज़ देश में चुनाव होना लोकतंत्र और विकास के लिये शुभ सकेंत नहीं हैं.तो क्या देश में एकसाथ चुनाव होना चाहियें ? या नहीं होना चाहियें ?
आईयें इस मामलें की पड़ताल करतें हैं :::
#एक साथ चुनाव के पक्ष में :::
भारत की बड़ी राजनितिक पार्टी भाजपा (भारतीय जनता पार्ट़ी ) और कांग्रेस ( congress) एक साथ चुनाव करवानें वाली बहसों में सकारात्मक नजर आ रही हैं.
इन दलों के राजनेताओं का भी मानना हैं कि बार - बार चुनाव से देश हर समय चुनावी मोड़ पर रहता हैं.फलस्वरूप प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री, मंत्री,विधायकों,सांसदों आदि जिम्मेदार पदों पर बेंठें राजनेताओं को जनता के कार्य छोड़कर पार्ट़ी प्रत्याशी के समर्थन में प्रचार करना पड़ता हैं.
इसी प्रकार कई बुद्धिजीवी वर्गों का मानना हैं,कि एक साथ चुनाव लोकतांत्रिक प्रणाली के लिये शुभ संकेंत हैं,क्योंकि इससे जनता का पैसा बार - बार बर्बाद नहीं होगा.
वैसें भी आजकल चुनाव कुछ हजार रूपयें तक सीमित नहीं रहें देश में पंच,सरपंच ,पार्षद और नगर पंचायत अध्यक्ष हेतू प्रत्याशी लाखों रूपये पानी की तरह बहातें हैं,जिसका संग्रहण विजयी होनें के बाद विकास कार्यों के लिये मिलें धन की बंदरबाट़ करके करतें हैं.
चुनाव संचालित होनें के पूर्व संबधित चुनाव क्षेत्र आचार संहिता के प्रभाव में आ जाता हैं,जिससे उस क्षेत्र में सरकार कोई कल्याणकारी घोषणा नहीं कर सकती जबकि दूसरें क्षेत्रों में विकास निर्बाध गति से संचालित किया जा सकता हैं. इससे एक क्षेत्र के मुकाबलें दूसरा क्षेत्र पिछड़ जाता हैं.
बार - बार चूनाव से देश को आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता हैं ,एक अनुमान के अनुसार लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करवानें पर देश को 5,000 करोड़ रूपयों की आवश्यकता होती हैं.
इसी प्रकार एक विधानसभा के मध्यावधि चुनाव पर 1,000 हजार करोड़ रूपयों की बर्बादी होती हैं.
भारत के लियें एक साथ चुनाव करवाना कोई अव्याहावारिक घट़ना नहीं होगी क्योंकि इसके पहलें भी देश में सन् 1952,1957,1962,और 1967 में विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ - साथ हो चुकें हैं.जबकि उस समय Technology इतनी उन्नत भी नहीं थी.
एक साथ - चुनाव के लियें भारत के संविधान के अनुच्छेद 85(2)ख और अनुच्छेद 174(2) ख में लोकसभा और विधानसभा के "भंग"करनें के शब्द को " निलम्बन " से प्रतिस्थापित करना पड़ेगा जो कि भारत जैसें देश के लचीलें संविधान के लियें असंभव नहीं हैं.
लोकसभा या विधानसभा "भंग" की जगह " "निलम्बित" रहनें पर पार्ट़ीया लोकहित में सरकार बनानें की और अग्रसर होगी और गठबंधन द्धारा कार्यकाल पूरा करनें का विकल्प पार्ट़ीयों के पास रहेगा.
# एक साथ चुनाव के विरोध में #
एक साथ चुनाव करवानें के विरोध में देश के छोट़े राजनितिक दल और क्षेत्रीय पार्ट़ीया प्रमुख रूप से शामिल हैं.
इनकें अलावा कुछ बुद्धिजीवीयों का भी मानना हैं कि अलग -अलग चुनाव होतें रहना चाहियें.
आईंयें जानतें हैं क्यों नहीं होना चाहियें एक साथ चुनाव
छोट़ें राजनितिक दलों और क्षेत्रीय पार्ट़ीयों का मानना हैं,कि एक साथ चुनाव करवानें से क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों के सामनें गोण हो जायेंगें क्योंकि लोकसभा चुनाव में जहाँ राष्ट्रीय मुद्दे महत्वपूर्ण होतें हैं,वही विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ऐसे में मतदाता भ्रमित होकर मतदान करेगा.
लोकसभा और विधानसभा "भंग" होनें का सीधा सा मतलब होता हैं सदन का विश्वास अब सत्तारूढ़ दल के प्रति नहीं हैं ,ऐसे में जोड़तोड़ के द्धारा किसी दल को सत्ता में बनें रहनें का अधिकार देना संविधान और लोकतंत्र की मूल भावना के पूर्णत: विपरीत होगा.
लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ करवा भी लियें जायें तो क्या पंचायतों, नगरपालिकाओं,और निगमों के चुनाव बाद में नहीं करवाना पड़ेंगें ऐसें में एक देश एक चुनाव की अवधारणा कहाँ तक प्रासंगिक होगी.
अपना कार्यकाल पूर्ण करनें के पूर्व रिक्त होनें वाली विधानसभा,लोकसभा या अन्य निर्वाचित सीटों पर पुन: निर्वाचन की प्रक्रिया का क्या प्रावधान रहेगा इस विषय पर सभी दल और निर्वाचन आयोग मौंन ही बना हुआ हैं.
अपना कार्यकाल पूर्ण करनें के पूर्व रिक्त होनें वाली विधानसभा,लोकसभा या अन्य निर्वाचित सीटों पर पुन: निर्वाचन की प्रक्रिया का क्या प्रावधान रहेगा इस विषय पर सभी दल और निर्वाचन आयोग मौंन ही बना हुआ हैं.
यदि पंचायतों,नगरपालिकाओं और नगर निगमों के चुनाव विधानसभा के साथ करवा भी लियें जायें तो एक व्यक्ति द्धारा पाँच प्रत्याशीयों (लोकसभा, विधानसभा,पंच, सरपंच,जनपद,जिला पंचायत या पार्षद,अध्यक्ष या महापोर) के लियें मतदान करना पड़ेगा.इस हेतू मतदान एक से अधिक दिनों के लियें भी संचालित करना पड़ सकता हैं,क्योंकि इतनें प्रत्याशीयों को वोट़ देनें के लियें एक निश्चित समय चाहियें जो एक दिन अपर्याप्त रहेगा.
क्या इतनी बड़ी जिम्मेदारी के लियें निर्वाचन आयोग तैयार हैं ?
भारत जहाँ मात्र 73% ही साक्षरता दर हैं,और जिसमें महिला साक्षरता दर 64.6% ही हैं ऐसे में क्या देश का मतदाता इतनी लम्बी मतदान प्रक्रिया के प्रति पूर्णत:तैयार हैं.
एक साथ चुनाव करवानें की बजाय वर्तमान चुनावी व्यवस्था को ओर अधिक बेहतर बनाया जा सकता हैं जैसें विधानसभा और लोकसभा में सरकार बहुमत में न रह जानें पर दूसरें सबसें बड़े दल को सरकार बनानें का मोका दिया जा सकता हैं.
विधानसभा और लोकसभा के प्रावधानों को संविधान के संशोंधन से 'भंग' की अपेक्षा 'निलम्बित' करनें और सरकार बनानें का एक ओर मौका सत्तारूढ़ दल या दूसरें दलों को देनें से क्या जोड़ - तोड़ और भ्रष्ट़ाचार की राजनिति को बढ़ावा नही मिलेगा.
वास्तव में चुनाव सुधार एक सतत् प्रक्रिया हैं,जो लगातार चलती रहनी चाहियें परंतु इसमें यह भी ध्यान रखा जाना चाहियें कि लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या नहीं हो.
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