होली और हमारा स्वास्थ
हमारें प्राचीन ऋषी मुनि वैज्ञानिक थें,यह अतिश्योक्ति नहीं हैं,बल्कि अनेक ऐसे पर्व हैं,जो उनकी इन बातों का समर्थन करतें हैं.![]() |
रंग |
इन प्राचीन ऋषि मुनियों ने अनेक पर्व एँव त्योहारों के माध्यम से आमजनों को स्वस्थ एँव निरोगी रहनें का संदेश दिया साथ ही इन पर्वों ,त्योहारों को धार्मिक जीवनशैली के साथ जोड़कर सदैंव अविस्मरणीय बनानें का प्रयत्न किया.
होली भी एक ऐसा त्योहार हैं,जो स्वास्थ और प्रसन्नता को समर्पित हैं,होली पर्व holi parv फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा से चैत्र कृष्ण पंचमी तक मनाया जाता हैं,चैत्र कृष्ण पंचमी को रंगपंचमी rangpanchami भी कहा जाता हैं.
भारतीय मोसमानुसार होली उस समय आती हैं,जब ठंड़ समाप्त होकर गर्मी शुरू होनें वाली होती हैं,यह संक्रामक मौसम हवा में पनपनें वाले हानिकारक बेक्टेरिया और वायरस को यकायक बढ़ानें वाला होता हैं,इस बात की पुष्टि scientist भी करतें हैं.
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बाबा महाकाल के आंगन की होली |
होली के दिन पूर्णिमा होती हैं,इस दिन महिलायें,और पुरूष होली की पूजा holi ki puja कर इसे जलानें के बाद इसकी परिक्रमा करतें हैं,क्योंकि होलीका दहन holika dahan के समय होलीका के आसपास का तापमान 300 - 400 डिग्री सेंटीग्रेट तक पँहुच जाता हैं,यह उच्च तापमान सभी प्रकार के बेक्टेरीया ( Bacteria) को नष्ट कर देता हैं.जब हम होलीका के आसपास परिक्रमा करतें हैं,तो हमारें शरीर से लगे सभी ख़तरनाक बेक्टेरिया और वायरस नष्ट हो जातें हैं.
# बच्चों का स्वास्थ्य और होली :::
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी हैं, की बच्चें चूंकि किसी भी प्रकार के संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित होतें हैं,अत:उन्हें भी इस पर्व से विशेष रूप से जोड़ा गया ताकि वे स्वस्थ रहें इसके लियें बच्चों को गोबर के विशेष खिलोंनें बनाकर उन्हें जलती होलीका में ड़ालनें हेतू प्रेरित किया गया ताकि उनके शरीर के घातक बेक्टेरिया भी आग के सम्पर्क में आकर नष्ट हो जावें.
# पशुओं का स्वास्थ्य और होली ::::
अत: इस मौसम में अतिसार जैसी बीमारी पशुओं को कमज़ोर बनाकर पशुओं के शरीर में ख़निज और लवण की कमी कर देती हैं.
यह सिका नमक पूरी गर्मी पानी में डालकर पशुओं को पीलाया जाता हैं,ताकि भीषण गर्मी में भी पशुओं के शरीर में पानी की कमी नही हो,और पशु स्वस्थ रहकर खेतों में काम करता रहें.
• रंगों के माध्यम से स्वास्थ्य
होली के दूसरें दिन holi KE dusre din जिसे धूलेंड़ी कहतें हैं,सभी लोग सुबह होलीका के पास एकत्रित होकर एक दूसरें को रंग लगातें हैं,वास्तव में यह परंपरा होली का सुधरा रूप हैं,क्योंकि धूलेंड़ी का शाब्दिक अर्थ धूल + एड़ी होता हैं,अर्थात धूल को सिर से एड़ी तक लगाना.
जली हुई होलीका की ठंड़ी हुई राख या धूल को सिर से लगाकर एड़ी तक लगानें से चर्म रोग की संभावना लगभग समाप्त हो जाती हैं.
जली हुई होलीका की ठंड़ी हुई राख या धूल को सिर से लगाकर एड़ी तक लगानें से चर्म रोग की संभावना लगभग समाप्त हो जाती हैं.
शरीर पर लगी इस राख को पलाश के फूलों से बनें रंगो से धोया जाता था,क्योंकि पलाश के रंगो में वह प्राकृतिक गुण होतें हैं,जो शरीर के रोम छिद्रों को खोलकर मन को प्रफुल्लित करतें हैं.और जब यह रंग स्वंय नही ड़ालकर दूसरों द्धारा डाला जाता तो मनुष्य वैमनस्यता को भूलकर आपसी प्रेमऔर भाईचारें के सूत्र में बंध जातें.
होली के साथ एक परंपरा और जुड़ी हुई हैं,वह यह कि इस दिन जिस घर में पिछलें एक वर्ष में किसी की मृत्यु हुई हैंं,उस घर जाकर उनके परिवार के सदस्यों पर रंग लगाकर उन्हें उस गम को भूलकर पुन: प्रशन्नचित्त रहनें का संदेश दिया जाता हैं,ताकि वह परिवार पुन: संजीवनी लेकर समाज की प्रगति में योगदान दे सकें.
राधा और कृष्ण भी इस त्योहार के साथ जुड़कर समाज को प्रेम और भाईचारें का सन्देश देनें में कामयाब रहें यही कारण हैं,कि उनका नाम सदैव इस पर्व के साथ अमर हो गया.
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राधा और कृष्ण |
इस प्रकार स्पष्ट़ हैं,कि होली के इस पाँच दिवसीय पर्व के पिछें की भावना मनुष्य को शारीरिक,मानसिक और सामाजिक रूप से स्वस्थ बनानें की हैं.
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