भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था का आलोचनात्मक मूल्यांकन - जवान होता हुआ भारत,बुढ़ाता जनस्वास्थ
भारत विश्व की सबसे युवा जनसँख्या वाला देश हैं, जहाँ की 65% जनसँख्या 35 वर्ष से कम उम्र की हैं,जानकार इसे भारत उदय के रूप में देख रहे हैं. लेकिन जब हम जनस्वास्थ के दृष्टिकोण से देखें तो शायद इस बात पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल होता हैं,आईये जानतें हैं हक़ीकत क्या कहती हैं.
यदि छोट़े - छोट़े राष्ट्र ये सब कर सकतें हैं तो हम क्यों नहीं ,हमारें पास तो इन राष्ट्रों से भी अच्छें अनुसंधान संगठन और संस्थान हैं,हम रोज़ ही इनकी सफलता की कहानी अखबार और समाचारों में पढ़ते सुनते हैं,तो फिर क्या कारण हैं,कि हम पिछें हैं,यदि इसका भी विश्लेषण गहराई में जाकर करें तो उपचार दिखाई देता हैं.वो क्या हो सकता हैं,
आईयें जानें
कुपोषण और मातृ - शिशु मृत्यु दर
भारत अपनी GDP का 1.15 प्रतिशत स्वास्थ्य पर ख़र्च करता हैं,यदि खाद्य सुरक्षा कानून (food security act) और मध्यान्ह भोजन योजना (mid day meal) को इसमें शामिल कर दिया जावें तो यह राशि GDP के कुल 8% के करीब बेठती हैं,लेकिन कुपोषण और मातृ मृत्यु के मामलें में हम विकसित राष्ट्रों से मीलों दूर हैं. और इन दोनों मामलों में दहाई के अंक से निचे नहीं आ रहे हैं.म.प्र. में तो कुपोषण 52 प्रति हज़ार हैं,जबकि प्रदेश प्रोटीन के सबसे बढ़े स्त्रोंत सोयाबीन उत्पादन में भारत का अग्रणी राष्ट्र हैं.
देश की गर्भवती स्त्रीयों में यदि एनिमिया की चर्चा करें तो यह दर 44% हैं.
किशोरियों में तो 79% खून की कमी का सामना कर रही हैं.क्या इन हालातों में एक माँ आनें वाले सालों में स्वस्थ संतान को जन्म दे सकती हैं ?
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत के 63.3% ग्रामीण पोषण देनें वाले भोजन की कीमत नहीं चुका पातें हैं जबकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा सार्वजनिक वितरण प्रणाली वाला राष्ट्र हैं जहाँ मुफ्त राशन देनें वाला कार्यकर्म संचालित हैं ।
बीमारियों में विविधता और डाक्टरों की भूमिका :::
भारत और उसके प्रदेशों की ग्रामीण आबादी जहाँ गरीबों वाली बीमारियों जैसें मलेरिया,डेंगू, चिकनगुनिया,डायरिया से मर रही हैं ,वहीं अमीर वर्गों में ह्रदय रोग ,ड़ायबीटीज ,मोटापा जैसी बीमारियां बढ़ती जा रही हैं
.मधुमेह की तो भारत राजधानी कहलाता हैं.
.मधुमेह की तो भारत राजधानी कहलाता हैं.
भारत में मूलभूत स्वास्थ्य व्यवस्था सही नहीं होने का मूल कारण क्या हैं?
इसका विश्लेषण गहराई में जाकर करें तो हक़ीकत परत दर परत सामनें आती हैं.देश के अधिकांश अच्छे मेडिकल कालेजों से निकलनें वालें छात्र और विश्वविधालयों के छात्र कभी नहीं चाहतें की वह मलेरिया,टी.बी.जैसी सामान्य बीमारियों का इलाज करें या उस पर रिसर्च करें हर छात्र कैंसर,ह्रदय रोग,मोटापा,ड़ायबीटीज जैसी बीमारियों की तरफ़ ही आकर्षित होतें हैं,क्योंकि इन बीमारियों का इलाज करके वे करोड़ो अरबों रूपयें देश के अमीरों की जेब से आसानी से निकाल सकतें हैं.एक तरफ़ ग्रामीण क्षेत्रों के औषधालय खाली पड़े हैं,जबकि शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह सुपर स्पेशलिटी अस्पताल खुल रहे हैं.
दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद नर्स, फार्मासिस्ट बहुत अनुभवी और चिकित्सा करने में सक्षम हैं लेकिन सरकार के पास ऐसे अनुभवी मानव संसाधन का उपयोग करने की कोई ठोस योजना ही नहीं है।
इंजिनियर का डिप्लोमा करने वाला व्यक्ति ग्रेजुएट कोर्स के दूसरे वर्ष में प्रवेश ले लेता है। किंतु नर्स, फार्मासिस्ट आदि का कोर्स करने वाले व्यक्ति डाक्टर के किसी भी कोर्स में दूसरे की तो छोड़ दे पहले वर्ष में ही प्रवेश के लिए योग्य नहीं हैं।
पारपंरिक चिकित्सा प्रणाली के साथ भेदभाव :::
भारत में अंग्रेजी शासन के पूर्व पारम्परिक चिकित्सा प्रणाली योग,आयुर्वैद लोकप्रिय,सस्ती और टीकाऊ थी.अंग्रेजों ने इसकी महत्ता जानतें हुये भी अपनें देश की दवा कम्पनियों को लाभ पहुचाँनें के उद्देश्य से इसके स्थान पर आधुनिक चिकित्सा पद्धति का जाल बुनना शुरू किया और इसके माध्यम से हर मर्ज़ को मिट़ानें का दावा किया.
स्वतंत्रता के पश्चात भी सरकारें इन दवा कम्पनियों के दबाव में रही और "भौर समिति" जिसमें एक भी भारतीय चिकित्सा पद्धति और योग का जानकार नहीं था,ने भी एलोपैथी को ही मान्यता प्रदान की
स्वतंत्रता के पश्चात भी सरकारें इन दवा कम्पनियों के दबाव में रही और "भौर समिति" जिसमें एक भी भारतीय चिकित्सा पद्धति और योग का जानकार नहीं था,ने भी एलोपैथी को ही मान्यता प्रदान की
भारत में एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति को स्वतंत्रता के बाद ही मान्यता प्रदान कर मुख्य धारा में शामिल कर लिया गया था किन्तु आयुर्वेद,योग,सिद्धा, यूनानी,नेचुरोपैथी और सोवा रिग्पा को एकीकृत कर आयुष के अंतर्गत लाने में सदियों का सफर तय करना पडा।
इससे बड़ी हास्यास्पद चीज क्या होगी की गांव की जड़ी बूटियों और सस्ती वनस्पतियों से उपचार करने वाला वैध जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस ज्ञान को हस्तांतरित करता हैं उसे " नीम हकीम दुश्मन ए जान" कहकर दुश्प्रचारित किया जाता रहा।
प्रत्येक चिकित्सा प्रणाली अपनें आप में विशिष्ठ और कुछ क्षेत्रों में निष्णान्त होती किन्तु एक को दबाकर दूसरी का विकास किया जावें तो प्रश्न उठना स्वाभाविक हैं.अत: आवश्यकता इस बात की हैं,कि पारपंरिक चिकित्सा में शोध को बढ़ावा देकर जनसामान्य को इस और प्रेरित किया जावें की वे छोटी - छोटी बीमारियों को अपनें ग्यान से काबू कर सकें,क्योंकि ये औषधियाँ हर घर के आसपास आसानी से उपलब्ध रहती हैं,ज़रूरत हैं,मात्र इस दिशा में शोध को बढ़ानें और पारपंरिक ज्ञान के संकलन की.
मर्ज बढ़ता गया ज्यों - ज्यों दवा की :::
भारत स्वास्थ सेंवायें हर नागरिक तक पहुँचाने के मामलें में विकसित देशों के समान ही संसाधन जुटाता आ रहा हैं,पैसा भी लगभग विश्व स्वास्थ संगठन के मानकों के अनुरूप ख़र्च हो रहा हैं.लेकिन क्या कारण हैं,कि हम 17 वीं शताब्दी की बीमारियों से ही पल्ला नहीं छुड़ा पा रहे हैं,जबकि हमसे कम विकसित राष्ट्रों नें कई बीमारियों का उन्मूलन कर दिया हैं,जैसे श्री लंका मलेरिया मुक्त राष्ट्र हैं .
चिकित्सा रैंकिंग में भारत
चिकित्सा रैंकिंग में भारत 145 वें स्थान पर हैं दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाला देश यदि की अल्पविकसित राष्ट्रों से भी चिकित्सा रैंकिंग में पीछे है तो यह हमारे लिए विचलित करने वाली बात है।
मेडिकल शिक्षा की बात करें तो भारत में पहला अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान सन् 1956 में स्थापित हो गया था किन्तु दूसरा अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान खुलने में 48 वर्ष लगे। जिसके कारण गुणवत्ता पूर्ण चिकित्सा प्रभावित हुई और भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लाखों लोग साधारण बीमारियों की वजह से मौत के मुंह में समा गए।
यदि छोट़े - छोट़े राष्ट्र ये सब कर सकतें हैं तो हम क्यों नहीं ,हमारें पास तो इन राष्ट्रों से भी अच्छें अनुसंधान संगठन और संस्थान हैं,हम रोज़ ही इनकी सफलता की कहानी अखबार और समाचारों में पढ़ते सुनते हैं,तो फिर क्या कारण हैं,कि हम पिछें हैं,यदि इसका भी विश्लेषण गहराई में जाकर करें तो उपचार दिखाई देता हैं.वो क्या हो सकता हैं,
आईयें जानें
सबसे बड़ी बाधा हमारी शासन - प्रशासन प्रणाली की हैं देश - प्रदेश में भले कही भी लोग बीमीरियों और महामारी फैलनें से मर रहे हों लेकिन जाँच या तो प्रशासनिक अधिकारी करेगा,या मजिस्ट्रेट यदि विषय विशेषज्ञ सम्मिलित भी हो गया तो रिपोर्ट किसी प्रशासनिक व्यक्ति को करेगा जिसके बाद उस पर कोई निर्णय लिया जावेगा .
लेकिन इन सबके बीच में हमारें शीर्ष अनुसंधान संस्थानों को नजरअंदाज कर दिया जाता हैं,क्यों नहीं जाँच से लेकर कार्यवाही तक इनकी सेंवाओं का उपयोग लिया जाता हैं.क्या इन संस्थानों की भूमिका मात्र बीमारी की जाँच तक सीमित रखी जानी चाहियें ? क्यों इन संस्थानों को मैदान में नहीं उतारा जाता ?
मैदानी क्षेत्रों में कार्यरत नर्स, फार्मासिस्ट, आदि को डाक्टर बनाने की कोई ठोस योजना बनानी पड़ेगी चाहे तो इसके लिए मेडिकल कॉलेज में इन्हें सर्विस कोटे से प्रवेश दे सकते हैं
यदि भारत सदा खुशहाल ,संपन्न और यहाँ के नागरिकों को निरोगी रखना हैं,तो हमें शुरूआत अभी से करनी पड़ेगी.
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