1.संस्कार एक परिचय :::
भारतीय सभ्यता एँव संस्कृति में सदियों से संस्कार को विशिष्ट स्थान प्राप्त रहा हैं.संस्कार के कारण ही मनुष्य पशुओं से प्रथक होकर संस्कारित हुआ हैं.यदि शाब्दिक दृष्टिकोण से विचार करें तो संस्कार वह हैं जो मनुष्य को निराकार से साकार बनाकर समाज के लिये उपयोगी बना दें.
संस्कार के माध्यम से ही मनुष्य शारिरीक,मानसिक,सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से परिष्कृत होता हैं.
# 2.संस्कार क्यों ? :::
संस्कार के बिना भी मनुष्य जिन्दा रह सकता हैं,फिर संस्कार की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
इसका सीधा जवाब यह हैं कि प्राण तो प्रत्येक जीव जगत में मोजूद हैं,परन्तु भारतीय संस्कृति में विकसित संस्कार ने मनुष्य को खानें पीनें और मेथुन की क्रिया से परें हटकर आत्म विकास और समाज विकास हेतू प्रेरित और प्रोत्साहित किया ताकि मनुष्य आगामी पीढ़ी को बेहतर बना सकें.संस्कार ही मनुष्यों को दया,क्षमा,उचित ,अनुचित,में भेद करना सीखाते हैं.
भारतीय जीवन दर्शन कुल 16 संस्कारों को व्यक्ति के विकास हेतू जीवन में क्रियान्वित करनें पर बल देता हैं.
जो इस प्रकार है.
# 1.गर्भाधान संस्कार :::
यह संस्कार पति - पत्नि द्धारा विवाह के पश्चात संपन्न किया जाता हैं.
शाखायन ग्रहसूत्र के अनुसार गर्भाधान संस्कार विवाह की चौथी रात्री को किया जाना चाहियें यदि इस विधि पर हम आधुनिक रूप से सोचें तो पता चलता हैं,कि विवाह की चौथी रात्री सहवास के लिये आदर्श मानी जाती हैं.
क्योंकि इस समय तक स्त्री पुरूष विवाह संस्कार से पूर्ण निवृत्त होकर शांतवृत्ति से शारीरिक सम्पर्क स्थापित कर सकतें हैं.
शांतवृत्ति, पूर्ण मनोंयोग और अच्छी भावना के साथ किया गया मेथुन (Intercourse) सुंदर,सुशील,निरोगी,और बुद्धिमान संतान उत्पन्न करता हैं,इस बात को आज का आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी मानता हैं.इस संस्कार का भी यही उद्देश्य हैं,कि स्त्री पुरूष शांतचित्त,प्रशन्न होकर सहवास करें ताकि बुद्धिमान और निरोगी संतान पैदा होकर समाज के विकास में योगदान दे सकें.
# 2.पुंसवन :::
पुंसवन शब्द के साथ पुत्र जन्म को संबध जोड़ा जाता हैं,भारतीय समाज में पुत्र को सदैव महत्वपूर्ण स्थान दिया गया हैं,जिसके अनुसार पहली संतान में पुत्र प्राप्ति को वरीयता दी गई हैं.किन्तु इसके इस पक्ष को छोड़ हम स्वास्थ के दृष्टिकोण से इस संस्कार पर दृष्टि डालें तो यह संस्कार स्त्री के गर्भ को सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से किया जानें वाला महत्वपूर्ण संस्कार हैं.
जिसमें औषधि और बरगद की छाल के दूध को स्त्री के नथूनों में ड़ालनें का रिवाज हैं.
आयुर्वैद के दृष्टिकोण से देखें तो बरगद का दूध शीत प्रकृति का होकर गर्भ को बल प्रदान करता हैं,जिससे गर्भपात होनें की संभावना समाप्त हो जाती हैं.स्त्री के गर्भ पर शीतल जल का घड़ा रखनें का भी यही उद्देश्य रहा हैं.किन्तु कालांतर में इसके साथ पुत्र जन्म की कामना की परिपाटी प्रचलित हो गई जो समाज में पुरूषों की समाज में महत्ता को इंगित करता हैं.
# 3.सीमन्तोन्नयन :::
सीमन्तोंन्नयन का तात्पर्य हैं,केशों को ऊपर उठाना .ग्रहसूत्रों में इस संस्कार का समय गर्भ के चौथा या पाँचवा मास निर्धारित हैं.गर्भवती स्त्री और आनें वाली संतान के स्वास्थ के दृष्टिकोण से यह समय अत्यन्त महत्व का होता हैं,जिसमें माता और शिशु के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहियें.
केशों को ऊपर उठानें का सांकेतिक संदेश यही रहता हैं,कि स्त्री अब सोते वक्त,बैठते वक्त,और खाते वक्त विशेष ध्यान रखें.इस संस्कार के पश्चात स्त्री को नदी में नहानें,यात्रा करनें आदि की मनाही थी इसी प्रकार पुरूषों के लियें भी सहवास ,विदेश यात्रा और तीर्थाट़न की मनाही होकर स्त्री के साथ समय व्यतीत करनें पर जोर था.
आधुनिक चिकित्सा का भी यही मानना हैं,गर्भस्थ शिशु और माता के स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से पांचवें माह के पश्चात स्त्री के साथ सहवास बंद कर दिया जाना चाहियें, इसी प्रकार यदि पुरूष गर्भावस्था का अन्तिम समय पत्नि के साथ बिताता हैं,तो पत्नि को शारिरीक और मानसिक संबल मिलता हैं.
पश्चिमी देशों ने भारतीय संस्कृति के इस रूप को शोध उपरांत बहुत तीव्रता के साथ ग्रहण किया हैं,इसका सबसे अच्छा उदाहरण प्रसव के समय अस्पतालों में पति का पत्नि के बगल में खड़ा रहकर उसे संबल प्रदान करना हैं.
# 4.जातकर्म :::
यह संस्कार बच्चें के जन्म के तुरन्त बाद किया जाता हैं,जिसमें पिता की उपस्थिति में कुछ क्रियाएँ करनें के उपरांत शिशु की गर्भनाल अलग की जाती हैं.पिता की उपस्थिति से पता चलता हैं,कि प्राचीन समय में पिता प्रसव के समय पत्नि के पास उपस्थित रहता था.
इस संस्कार के एक भाग में पिता प्रसूता के कक्ष में अग्नि प्रज्वलित करता हैं,इस क्रिया के चिकित्सकीय दृष्टिकोण पर नज़र ड़ाले तो इसका उद्देश्य बच्चें और माता के आसपास शुचिता सुनिश्चित करना रहा हैं,अग्नि अपनें आसपास के जीवाणुओं को जलाकर नष्ट कर कर देती हैं.फलस्वरूप शिशु और माता अनिष्ट से बचें रहतें हैं.
इस क्रिया के एक भाग में शिशु को शहद चट़ानें का रिवाज हैं,किन्तु आधुनिक चिकित्साशास्त्र इसके पक्ष में नही हैं.किन्तु यदि विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला जावें तो शहद चटानें के मूल में भी सुचिता और बच्चें को संक्रमण से बचानें की भावना थी.
चूँकि शहद एंटी बेक्टेरियल गुणों से समृद्ध होता हैं,अत:इसके सिमित मात्रा में बच्चें के मुँह में फेरनें से गर्भ के समय बच्चें के मुँह में गया गंदा पानी और मुँह में पनपनें वालें बेक्टेरिया नष्ट हो जातें हैं.किन्तु समय के साथ इस रिती को खीर और दही से जोड़ दिया गया जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अनुचित हैं.
चूँकि शहद एंटी बेक्टेरियल गुणों से समृद्ध होता हैं,अत:इसके सिमित मात्रा में बच्चें के मुँह में फेरनें से गर्भ के समय बच्चें के मुँह में गया गंदा पानी और मुँह में पनपनें वालें बेक्टेरिया नष्ट हो जातें हैं.किन्तु समय के साथ इस रिती को खीर और दही से जोड़ दिया गया जो स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अनुचित हैं.
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# 5. नामकरण :::
संस्कार के माध्यम से बच्चें का नामकरण हिन्दु धर्म की अन्य धर्मों को देन हैं,बच्चें का नामकरण करनें का मूल उद्देश्य उसे व्यक्तित्व के दृष्टिकोण से परिपूर्ण बनाना रहा हैं.
कहा जाता हैं,कि नाम व्यक्तित्व को निर्धारित करनें में महत्वपूर्ण भूमिका निभातें हैं.यही कारण हैं,कि हिन्दू धर्म ऐसे नामों को वरियता देता हैं,जिन नामों के व्यक्तियों ने अपनें कार्यों से समाज में एक विशिष्ठ स्थान अर्जित किया हैं.
कहा जाता हैं,कि नाम व्यक्तित्व को निर्धारित करनें में महत्वपूर्ण भूमिका निभातें हैं.यही कारण हैं,कि हिन्दू धर्म ऐसे नामों को वरियता देता हैं,जिन नामों के व्यक्तियों ने अपनें कार्यों से समाज में एक विशिष्ठ स्थान अर्जित किया हैं.
ग्रहसूत्रों के अनुसार नामकरण के समय नक्षत्र,वार,तिथि,लग्न का विचार किया जाता हैं तदनुरूप राशिनुसार नाम निर्धारित कियें जातें हैं.आधुनिक विग्यान इस बात का समर्थन करता हैं,कि राशि,नक्षत्रानुसार जन्म लेनें वाले व्यक्ति का स्वभाव उस राशि के अनुसार ही होता हैं.
# 6.निष्क्रमण :::
निष्क्रमण का शाब्दिक अर्थ हैं,बाहर निकालना इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को घर से बाहर निकालकर खुली वायु और धूप में विचरण कराना हैं,ताकि वह बाहरी वातावरण के अनुरूप अपनें को ढ़ाल सकें.और धूप में उसकी हड्डीयाँ मज़बूत हो सकें .
ग्रन्थों में शिशु को बाहरी वातावरण में प्रवेश करानें का समय बारह दिन से चार मास तक निर्धारित हैं.
ग्रन्थों में शिशु को बाहरी वातावरण में प्रवेश करानें का समय बारह दिन से चार मास तक निर्धारित हैं.
इस संस्कार के माध्यम से शिशु बाहरी समाज से भी परिचित होता हैं.
इस संस्कार में बच्चें को गोबर लेपित आंगन में जहाँ सूर्य की रोशनी पड़ती हो बिठाकर मंत्रों के उच्चारण और बच्चें को उपहार देकर संपन्न किया जाता हैं.
# 7.अन्नप्राशन :::
अन्नप्राशन |
हिन्दू धर्म कितना वैग्यानिक और स्वास्थ्य अनूकूल हैं,इसका सबसे सटीक उदाहरण अन्नप्राशन संस्कार हैं. आधुनिक चिकित्साशास्त्रीयों के मतानुसार बच्चें के 6 माह का होनें पर ठोस पूरक आहार शुरू कर दिया जाना चाहियें ताकि बच्चा माँ के दूध से विलग होकर सही रूप में शारिरीक और मानसिक विकास कर सकें.
याग्वल्क स्मृति भी यही कहती हैं,कि बच्चें के 6 माह का होनें पर खीर,शहद आदि ठोस आहार बच्चें को एक निश्चित समय पर देना शुरू कर देना चाहियें ताकि बच्चें की पाचन शक्ति विकसित हो सकें.यह क्रिया मंत्रोच्चार के बीच बच्चें की इंद्रीय विकसित हो ऐसी कामना के साथ संपन्न की जाती हैं.
याग्वल्क स्मृति भी यही कहती हैं,कि बच्चें के 6 माह का होनें पर खीर,शहद आदि ठोस आहार बच्चें को एक निश्चित समय पर देना शुरू कर देना चाहियें ताकि बच्चें की पाचन शक्ति विकसित हो सकें.यह क्रिया मंत्रोच्चार के बीच बच्चें की इंद्रीय विकसित हो ऐसी कामना के साथ संपन्न की जाती हैं.
# 8.चूड़ाकरण :::
चूड़ाकरण या मुण्ड़न संस्कार हिन्दुओं का सबसे प्रमुख संस्कार हैं.मनुस्मृति में इस संस्कार की उम्र एक से तीन वर्ष निर्धारित की हैं,वही पाराशर ग्रहसूत्र में इस संस्कार के लियें एक से सात वर्ष निर्धारित हैं.
इस संस्कार का मूल उद्देश्य सफाई और सौन्दर्य हैं.चरक के अनुसार गर्भ के केश शरीर से अलग करनें से शुचिता बढ़ती हैं,जिससे सौन्दर्य निखरता हैं.कालान्तर में इस संस्कार के साथ बलि प्रथा जैसे अनेक कर्मकांड़ प्रचलित हो गये जो इस संस्कार की मूल भावना से विरत करतें हैं.
इस संस्कार का मूल उद्देश्य सफाई और सौन्दर्य हैं.चरक के अनुसार गर्भ के केश शरीर से अलग करनें से शुचिता बढ़ती हैं,जिससे सौन्दर्य निखरता हैं.कालान्तर में इस संस्कार के साथ बलि प्रथा जैसे अनेक कर्मकांड़ प्रचलित हो गये जो इस संस्कार की मूल भावना से विरत करतें हैं.
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# 9.कर्णबेधन :::
विश्वामित्र ने इस संस्कार के लिये पाँच वर्ष की आयु निर्धारित की हैं.इस संस्कार में बालक का कर्णछेदन सोनें से किया जाता हैं.इस संस्कार के मूल में भी सौन्दर्य और आरोग्य की भावना हैं.
आधुनिक एक्यूप्रेशर चिकित्सानुसार कर्णछेदन से अस्थमा,खाँसी जैसी बीमारींयाँ नहीं होती और फेफडों को बल मिलता हैं.ज्योतिषशास्त्र भी कहता हैं,कि कर्णछेदन से निर्भयता आती हैं.
आधुनिक एक्यूप्रेशर चिकित्सानुसार कर्णछेदन से अस्थमा,खाँसी जैसी बीमारींयाँ नहीं होती और फेफडों को बल मिलता हैं.ज्योतिषशास्त्र भी कहता हैं,कि कर्णछेदन से निर्भयता आती हैं.
भारत की अनेक जनजातियों में भी कर्णछेदन की परम्परा हैं और इनके पिछें भी भावना आरोग्य और निर्भयता की ही हैं.
# 10.विधारम्भ :::
विधारम्भ संस्कार से पता चलता हैं,कि भारतीय संस्कृति न केवल शरीर के विकास को महत्व देती हैं,बल्कि मानसिक विकास के प्रति भी बहुत सवेंदनशील हैं.
आधुनिक बाल विकास सलाहकारों के मत में बच्चा अपनी उम्र के पाँचवें वर्ष से शिक्षा ग्रहण करनें योग्य बन जाता हैं.हमारें प्राचीन गुरू विश्वामित्र का भी यही
मानना हैं,कि विधारम्भ संस्कार बच्चें के पाँचवें वर्ष से शुरू होना चाहियें.
इसके पूर्व बच्चें को माता - पिता के सानिध्य में रहकर शिक्षा ग्रहण करना चाहियें. इस संस्कार की शुरूआत में बच्चें को "ऊँ" उच्चारण करवाकर स्लेट पर बारहखड़ी लिखना सीखाया जाता हैं.
आधुनिक बाल विकास सलाहकारों के मत में बच्चा अपनी उम्र के पाँचवें वर्ष से शिक्षा ग्रहण करनें योग्य बन जाता हैं.हमारें प्राचीन गुरू विश्वामित्र का भी यही
मानना हैं,कि विधारम्भ संस्कार बच्चें के पाँचवें वर्ष से शुरू होना चाहियें.
इसके पूर्व बच्चें को माता - पिता के सानिध्य में रहकर शिक्षा ग्रहण करना चाहियें. इस संस्कार की शुरूआत में बच्चें को "ऊँ" उच्चारण करवाकर स्लेट पर बारहखड़ी लिखना सीखाया जाता हैं.
# 11. उपनयन :::
बालक का उपनयन |
उपनयन में उसे धागे के तीन तारों वाली जनेऊ पहनाई जाती हैं,जिसका तात्पर्य हैं,कि अब उसे माता,पिता और गुरू के रिण को चुकाना हैं.
उपनयन के पश्चात बालक भिक्षाटन के लियें गुरू की आग्यानुसार समीप की बस्तियों में जाता हैं,यह कर्म राजा के बालक के लिये भी अनिवार्य रहता था,जिसका तात्पर्य हैं,कि जीवन के सुचारू संचालन के लिये उधम करना सभी के लिये आवश्यक हैं.भिक्षाटन के पश्चात भोजन बनाना और मिल बैठकर खाना सामाजिक समरसता और समभाव का प्रतीक था.
उपनयन ब्राहम्ण, क्षत्रिय, और वैश्य के लिये अनिवार्य था,इसका तात्पर्य हैं,कि वेदाध्ययन में किसी भी प्रकार का भेदभाव नही होता था,ना ही इस संस्कार में छूआछूत जैसी किसी सामाजिक बुराई का पता चलता हैं,बस उपनयन संस्कार की उम्र में अंतर हैं,जैसें ब्राहम्ण बालक का उपनयन आठवें वर्ष में,क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष में,और वैश्य का बारहवें वर्ष में,होना चाहियें.
उम्र संबधी अंतर का मूल कारण यह था कि ब्राहम्ण बालक शुरू से अपनें आचार्य पिता के संरक्षण में बहुत से ग्यान का अर्जन उम्र की शुरूआती अवस्था में ही कर लेता था.अत : उसे कम उम्र में कठिन वेदाभ्यास करवाना आसान था.
उम्र संबधी अंतर का मूल कारण यह था कि ब्राहम्ण बालक शुरू से अपनें आचार्य पिता के संरक्षण में बहुत से ग्यान का अर्जन उम्र की शुरूआती अवस्था में ही कर लेता था.अत : उसे कम उम्र में कठिन वेदाभ्यास करवाना आसान था.
# 12.समावर्तन :::
यह संस्कार वेदाध्ययन के अंत को सूचित करता हैं,इस संस्कार को करनें की आयु 24 वर्ष निर्धारित हैं.वेदाध्ययन के पश्चात गुरू की आग्या लेकर ग्रहस्थाश्रम में प्रवेश करता हैं.आधुनिक काल में भी व्यक्ति 24 वर्ष तक अपना विध्याध्यन समाप्त कर लेता हैं.और आगे के जीवन की तैयारी शुरू कर देता हैं.
# 13.विवाह :::
भारतीय संस्कृति विवाह को भी संस्कार मानती हैं,जो वेदाध्ययन के पश्चात प्रारंभ होना चाहियें, इस बात से यह जानकारी पुष्ट होती हैं,कि प्राचीन समय में बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई नही विधमान थी,विवाह के लिये व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक समाजीकरण आवश्यक था.
विवाह संस्कार से दीक्षित व्यक्ति के लिये यह आवश्यक था कि वह समाज की उन्नति और निरन्तरता के लिये सन्तान उत्पन्न कर उनका पालन पोषण करें,माता,पिता,गुरू का कर्ज अदा करें,इन कर्जों को चुकानें हेतू उसे सप्तपदी,होम,पाणिग्रहण जैसें अनुष्ठान करके उसके उत्तरदायित्व की याद दिलाई जाती हैं.
विवाह से ही सृष्टि उत्पन्न होती हैं,
विवाह के माध्यम से ही व्यक्ति धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं,इसीलिये इसे सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार माना गया हैं.
विवाह संस्कार से दीक्षित व्यक्ति के लिये यह आवश्यक था कि वह समाज की उन्नति और निरन्तरता के लिये सन्तान उत्पन्न कर उनका पालन पोषण करें,माता,पिता,गुरू का कर्ज अदा करें,इन कर्जों को चुकानें हेतू उसे सप्तपदी,होम,पाणिग्रहण जैसें अनुष्ठान करके उसके उत्तरदायित्व की याद दिलाई जाती हैं.
विवाहदेव संसृष्टि संसृष्टयैव जगत्नयम् चतुवर्ग : फल प्राप्ति: तस्मात् परिणय शुभ:
विवाह से ही सृष्टि उत्पन्न होती हैं,
विवाह के माध्यम से ही व्यक्ति धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं,इसीलिये इसे सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार माना गया हैं.
विवाह दो व्यक्तियों के साथ दो परिवारों का मिलन भी होता हैं,अत:इसमें अग्नि को साक्षी मानकर इस बंधन को आजन्म निभानें की शपथ ली जाती हैं.
# 14. अन्त्येष्टि :::
यह संस्कार व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसके सगे संबधी और पुत्र द्धारा किया जाता हैं.इस संस्कार में व्यक्ति को लकड़ियों पर लिटाकर अग्नि से जला दिया जाता हैं,ताकि उसका शरीर जलकर राख बन जायें और जल,वायु को प्रदूषित नही करें.कालांतर में मृत्यु के पश्चात के अनेक कर्मकांड़ों का प्रचलन हो गया जो मृतक के आश्रितों पर आर्थिक बोझ बन गया हैं.
वास्तव में कुछ कर्मकांड़ों का सांकेतिक महत्व था,जिससे मनुष्य शिक्षा लेकर जीवन को क्षणभंगुर मानें और हमेशा सद्कार्यों की और प्रेरित रहें.
वास्तव में कुछ कर्मकांड़ों का सांकेतिक महत्व था,जिससे मनुष्य शिक्षा लेकर जीवन को क्षणभंगुर मानें और हमेशा सद्कार्यों की और प्रेरित रहें.
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