आयुर्वेद के ग्रंथों में मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अश्मरी आदि मूत्रवह संस्थान से संबंधित व्याधियों के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। लेकिन इन ग्रंथों में वृक्करोग एवं उनकी चिकित्सा के बारे में अलग से अध्याय का वर्णन नहीं मिलता। वृक्करोग एवं उनकी चिकिस्ता के लिए भैषज्य रत्नावली इस ग्रंथ में एक स्वतंत्र अध्याय का वर्णन मिलता है, जहाँ पर सर्वतोभद्रा वटी का वर्णन किया गया है।
वृक्क रोगों से पीडित रुग्णों की चिकित्सा यह एक अत्यंत पेचीदा एवं कठिन विषय है, क्योंकि इन रोगों से पीडित रुग्ण बहुत देर से आयुर्वेद चिकित्सक के पास आते हैं। ऐसे समय अधिक तर रुग्ण डायलेसिस जैसे आधुनिक चिकित्सा उपक्रमों के आधार पर जिंदगी को संभाले हुए रहते हैं। ऐसी अवस्था में आयुर्वेद चिकित्सक के पास उनकी उचित चिकित्सा के लिए बहुत ही कम समय रहता है। अधिकतर रुग्ण धातु क्षय तथा ओज क्षय की गंभीर अवस्था में रहते हैं, जो चिकित्सा की दृष्टि से अत्यंत जटिल अवस्था में पहुँचे हुए होते हैं। वृक्क विकृती का असर अन्य महत्वपूर्ण कोष्ठांगों पर होने से व्याधिसंकर की अवस्था उत्पन्न होती है जो इस रोग को असाध्यता की ओर अग्रेसर करती है। इसीलिए इस व्याधि एवं इसकी चिकित्सा के प्रति विशेष ध्यान देना आवश्यक है।
घटक द्रव्य
हेमरौप्याभ्रलौहानि जतु गन्धक माक्षिकम्। वटी रक्तििामितां कुर्ययाद्विमर्द्यवरुणाम्भसा ।।
वटीयं सर्वत्रोभद्रा निखिलान् वृक्कजान्गदान्। हरेद्वस्तिभवांश्चापि बलं वीर्यश्च बध्र्द्धयेत् ॥ भैषज्य रत्नावली-वृक्करोग
सुवर्ण भस्म, रौप्य भस्म, अभ्रक भस्म, लौह भस्म, शोधित शिलाजतु, शोधित गन्धक, स्वर्णमाक्षिक भस्म इन सभी घटकों को समभाग में एकत्रित कर उसे वरुण मूल त्वक क्वाथ की भावना देकर इस कल्प को तैयार किया जाता है। इस पुस्तिका में सर्वतोभद्रा के बारे में हम विस्तृत जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।
सर्वतोभद्रा वटी में उपस्थित इन घटक द्रव्यों की चर्चा इनके रस, वीर्य, विपाक तथा गुण कर्मों के आधार पर करते हैं।
शरीर के मलों पर कार्य
मूत्र - क्लेदनिर्हरण कार्य को सुधारे
सर्वतोभद्रा वटी - वृक्क विकारों में इस विषय पर चर्चा करने के पहले हम वृक्क (मूत्रपिण्ड) के संदर्भ में विस्तृत विवेचन करेंगे। वृक्क के बारे में ग्रंथों में अलग अलग स्थानों पर कुछ उल्लेख मिलते हैं। वृक्वों को रचनात्मक दृष्टि से देखा जाए न तो यह एक मातृज अवयव है। इसकी उत्पत्ति गर्भ में रक्तमेदःप्रसादात् वृक्कौ। सु.शा. ४/३० अर्थात् रक्त एवं मेद के सार भाग से वृक्कों की निर्मिती होती है। वृक्कौ द्वयम् वक्षोऽधस्तात्। च.शा. ७/७ गंगाधर टिका, वृक्कौ मांसपिण्डद्वयम् (एको वामपार्श्वस्थितः द्वितीयो दक्षिणपार्श्वस्थितः।) सु.नि. ९/१८ डल्हण टिका. इससे यह स्पष्ट होता है, कि शरीर में वृक्कों की संख्या दो होती है। और वह वक्ष के निचले हिस्से में स्थित होते हैं। वृक्कों के सूक्ष्म रचना से संबंधित वर्णन भी सुश्रुत संहिता में मिलता है।
पक्वाशयगतास्तत्र नाड्यो मूत्रवहास्तु याः । तर्पयन्ति सदा मूत्रं सरितः सागरं यथा ।। सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते मुखान्यासां सहस्रशः ।
नाडीभिरुपनीतस्य मूत्रस्यामाशयान्तरात्।। जाग्रतः स्वपतश्चैव स निःस्यन्देन पूर्यते आमुखात्सलिले न्यस्तः पार्श्वेभ्यः पूर्यते नवः।।
घटो यथा तथा विद्धि बस्तिर्मूत्रेण पूर्यते सु. नि. ३/२१-२३
आधुनिक शारिर रचना तथा शरीर क्रिया से इसकी इस प्रकार तुलना कर सकते हैं।
जहाँ पर सहस्त्रमुखवाली मूत्रवहन करने वाली नाडीयों की उपस्थिती बतायी गयी है। इन प्रणालीयों द्वारा निःस्यन्दन प्रक्रिया से मूत्रस्वरुप द्रव पक्वाशय (मैड्युला) भाग में आता है। यहाँ पर इसमें से प्रसाद एवं किट्ट भाग का पुनः विभजन होता है। प्रसाद भाग शोषित होता है और किट्ट भाग अर्थात (जिस प्रकार सरिताएं सागर को मिलती हैं उसी प्रकार) मूत्र इन सूक्ष्म प्रणालीयों द्वारा वृक्क के पेल्विस भाग में एकत्रित होता है।
अब वृक्क का कार्यात्मक दृष्टि से अवलोकन करते है। मूत्र के निर्मिती की शुरुआत वैसे तो आहार पचन के पश्चात् सार किट्ट विभजन के साथ ही शुरु होती है। लेकिन उसे मूत्र का स्वरुप वृक्कों द्वारा प्राप्त होता है। मूत्र आदि मल भी शरीर धारण का कार्य करते है। इसका प्रमाण आचार्य सुश्रुत के दोषधातुमलमूलं हि शरीरम्। सु.सू.१५/३ इस सूत्र से मिलता है। अष्टांग हृदय में भी मलोचित्वाद्देहस्य क्षयो वृद्धेस्तु पीडनः । सूत्रस्थान ११/२५ ऐसा वर्णन मिलता है, जिससे इस बात का पता चलता है, कि मलस्वरुप घटक शरीर में उचित समय तक रहते हुए शरीर का धारण करते हैं, और योग्य समय में उनका विसर्जन होना भी आवश्यक होता है। मलों का उचित समय पर विसर्जन न होने से अथवा उनका क्षय या वृद्धि होने के कारण वह शरीर में विविध विकार उत्पन्न हो सकते हैं।
शरीर धारण करने वाला हर घटक पचन कार्य के पश्चात् ही उत्पन्न हो सकता है। सेवन किए हुए आहार पर जाठराग्नि द्वारा प्रक्रिया होने के पश्चात् सार भाग स्वरुप आहार रस की निर्मिती होती है, तो किट्ट भाग से मल एवं मूत्र की निर्मिती होती है। इसमें से द्रवस्वरुप मलीन घटकों से मूत्र की निर्मिती होती है।
यदि विकृति जाठराग्नि स्तर की है, तो सार एवं किट्ट इन दोनों की उत्पत्ति ठीक से नहीं होगी। जाठराग्निमांद्य के कारण साम मलों की उत्पत्ति होगी। साथ ही मल का संग होना शुरू हुआ तो शरीर में मल संचिती अधिक मात्रा में होगी, जो अष्टांग हृदय के वृद्धिं मलानां सङ्गाच्च .....। इस सूत्र द्वारा स्पष्ट होता है।
मूत्र का महत्वपूर्ण कार्य है, मूत्रस्य क्लेदवाहनम् । अष्टांग हृदय (क्लेदवाहनं क्लेदस्य बहिर्निर्गमनम्।) शरीर में उत्पन्न अतिरिक्त क्लेद एवं त्याज्य घटक, जो द्रवस्वरूप में है, मूत्र द्वारा शरीर से विसर्जित किए जाते हैं। आवश्यक घटकों का पुनः शोषण भी वृक्कों द्वारा होता है।
इन सभी प्रक्रियाओं में दोषों का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। वायु का कार्य है, कि वह इन घटकों का वहन ठीक से करें तथा निःस्यन्दनादि प्रक्रियाओं को सुचारु रुप से बनाए रखें। पित्त दोष के प्राकृत कार्य से शरीरावश्यक घटकों का पाचन होकर उनके पुनः शोषण में सहायता होती है तो प्राकृत कफ के कारण वहाँ पर स्निग्धता आदि गुणों को बरकरार रखा जाता है। अनुचित खाद्य पदार्थ या दवाईयाँ तथा अयोग्य विहार के कारण दुषित हुए वातादि दोषों के कारण यदि वृक्क प्रभावित होते हैं तो उसका असर उनमें स्थित सूक्ष्म प्रणालियों पर होता है। कभी कभी जंतु संक्रमण का असर भी वृक्कों पर होने से उनमें क्षोभादि अवस्था उत्पन्न होती है। उचित समय पर चिकित्सा न करने पर इनका परिणाम वृक्कों की कार्यकारी प्रणालीयों पर होकर वह खराब होने लगती हैं।
इससे मूत्रनिर्मिती के प्राकृत कार्य पर असर होकर अनावश्यक घटक एवं क्लेद निर्हरण की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होकर शोथादि लक्षणों की निर्मिती होती है। वृक्क के निर्मिती में रक्त एवं मेदधातु होता है, साथ हि वृक्क मेद धातु का मूल स्थान माना गया है. इसीलिए रक्त एवं मेद धातु की दृष्टि का असर वृक्कों पर भी होता है। पित्त एवं रक्त यह आश्रयाश्रयी भाव से एक साथ रहने वाले होने के कारण पित्त दुष्टि का असर भी वृक्कों पर होता है।
पित्त के उष्ण तीक्ष्णादि गुणों से दूषित रक्त के कारण वृक्क प्रणालीयों में दाह, राग एवं पाक जैसे लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं। वात दृष्टि के कारण इन प्रणालियों में रुक्षता, संकोच, काठीन्य जैसे बदलाव होने लगते हैं। जिनका असर आगे जाकर मूत्र निर्मिती प्रक्रियापर हो सकता है।
चिकित्सा सूत्र
यन्मूत्रलं शोणितशोधनंच यत् पोषणं वन्हिविवर्ध्दनचं।
वृक्कस रोगे परियोजयेत् तद् व्याधेर्बलं वीक्ष्य भिषज् विधिज्ञः ।। रसो विवर्द्धयेद्व्याधिमतस्तं नेह योजयेत्।।
भै. र. वृक्करोग
जो औषधि मूत्रल, रक्तशोधक / रक्तप्रसादन करनेवाली हो, जो शरीर के लिए बृंहण कार्य करनेवाली हो और अग्नि को प्रदीप्त करनेवाली हो, ऐसी औषधि का एवं आहार का प्रयोग वृक्क रोगों में युक्तिपूर्वक करना चाहिये। चिकित्सा करते समय वैद्यने रोगी के एवं व्याधि के बल का भी विचार करना आवश्यक है।
जीर्ण व नवीन वृक्क विकार, प्रमेह विशेषत: मधुमेह में इसका व्यवहार गोक्षुरादि क्वाथ या वरुणादि क्वाथ के अनुपान से करते है। सर्वतोभद्रा वटी रोगनाशन के साथ रसायन कार्य भी करती है।
सर्वतोभद्रा वटी का प्रयोग वृक्कों के स्वास्थ्य को पुनर्स्थापित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। यह एक रसायन कल्प है।
इनमें उपस्थित सुवर्ण भस्म, रौप्य भस्म के साथ शोधित शिलाजतु जैसे रसायन गुणधर्म के घटकों के कारण यह कार्य संभव होता है। इस कल्प का प्रयोग वृक्क रोग की शुरुआती अवस्थाओं में करना उत्तम फलप्राप्ती के लिए अत्यंत आवश्यक है।
शरीरस्थ अवयवों में उत्पन्न क्षती धातुपोषक घटकों की सहायता से दूर होते रहती है। लेकिन क्षती कौनसे अवयव या कोष्ठांग से संबंधित है, कितनी है, किस वजह से है तथा क्षती उत्पन्न करने चाले घटकों को दूर कर दिया गया है या नहीं इन बातों पर निर्भर होता है। यदि ऐसे नहीं हुआ तो अवयव या कोष्ठांग की हानी होते रहती है जिससे उभरना असंभव हो जाता है। मधुमेह के रुग्णों में वृक्क संबंधित विकृती आज अधिक दिखाई दे रही है।
मधुमेह कि अवस्था पर उचित नियंत्रण न रहने पर वृक्क विकृती होना अधिक संभव रहता है। ऐसे रुग्णों में मधुमेह पर नियंत्रण करने वाली आयुर्वेद दवाईयों के साथ वृक्कों का संरक्षण करने वाले सर्वतोभद्रा वटी इस रसायन कल्प का प्रयोग पहले से ही करने से वृक्कों में पहुँची क्षती को दूर किया जा सकता है। साथ ही यह क्षती और अधिक गंभीर न हो इसका उपाय भी हो सकता है।
सर्वतोभद्रा वटी में रहने वाले सुवर्ण, रजत, अभ्रक जैसे भस्मों से उत्तम रसायन कार्य होता है, जिससे वृक्कों को हुई हानी दूर होने में सहायता मिलती है। इन घटकों का गामित्व वृक्कों की तरफ हो
इसलिए मूत्रवह संस्थान पर कार्यकारी ऐसे शोधित शिलाजित तथा वरुण इस वनस्पति का भावना के रूप में प्रयोग सर्वतोभद्रा वटी में किया गया है। इस कल्प में उपस्थित लोह भस्म एवं अभ्रक भस्म की उपस्थिती से यह कल्प विशेष रुप से रस रक्त धातु का पोषण करने में सहायता करता है।
सुवर्णमाक्षिक भस्म यह अपने मधुर, तिक्त एवं शीत वीर्य से पित्त का शमन करने का कार्य करता है, जिससे रक्तप्रसादन होकर रक्त में बढे हुए उष्ण, तीक्ष्णादि गुणों का शमन होने में सहायता मिलती है। इससे आगे चलकर वृक्कों में होने वाले पाकादि लक्षण कम होने में सहायता मिलती है।
शोधित शिलाजतु और लोह भस्म का प्रयोग प्रमेह में रसायन हेतु करने का विधान ग्रंथों में मिलता है। साथ ही मेदोदुष्टिजन्य विकारों में भी यह रसायन तथा अपाचित मेद संचिती को कम करने में सहाय्यक होते हैं। इन घटकों का सर्वतोभद्रा वटी में उपस्थित रहना प्रमेह जन्य वृक्क विकृती में विशेष लाभकर है। शिलाजित एवं वरुण यह दोनों घटक भेदन गुणधर्मों से युक्त होने के कारण स्रोतसों में उत्पन्न अवरोध को दूर करने के लिए भी उपयुक्त होते हैं।
वृक्कों में क्लेद, मेद अथवा अन्य दूषित घटकों की संचिती होने के कारण उत्पन्न स्रोतोरोध को दूर करने के लिए शोधित शिलाजतु एवं वरुण इन घटकों से उत्तम लाभ मिलता है। साथ ही शिलाजित एवं वरुण अश्मरी भेदन करने वाले द्रव्य होने के कारण अश्मरीजन्य वृक्क विकृती में भी सर्वतोभद्रा वटी लाभदेय होती है।
सर्वतोभद्रा वटी में शोधित गंधक का प्रयोग किया गया है। यह कफवातनाशक द्रव्य है। शोधित गंधक उत्तम दीपक एवं आमपाचक द्रव्य होने के साथ उत्तम गरविष अर्थात् कृत्रिम विषनाशक द्रव्य है। यह एक उत्तम जन्तुघ्न द्रव्य होने के कारण वृक्क विकृती में संक्रमण की अवस्था को रोकने में मददगार होता है।
वृक्क विकृति से पीडित व्यक्ति में धातुक्षय, बलहानी, अनुत्साह आदि लक्षणों की उत्पत्ति होती है और वह दिन ब दिन बढ़ती ही चली जाती है। साथ ही शरीर में स्थानिक अथवा सार्वदेहिक शोथ की उत्पत्ति होती है। हृदयादि अवयवों के कार्य पर भी इसका असर होने लगता है। ऐसी अवस्था में सुवर्ण भस्म, रजत भस्म, अभ्रक भस्म तथा शोधित शिलाजतु इन रसायन द्रव्यों से परीपूर्ण सर्वतोभद्रा वटी शरीर में बल, उत्साह एवं उर्जा की उत्पत्ति करने में भी उपयुक्त होते हैं। इससे हृदयादि अवयवों को भी बल प्राप्त होकर उनके कार्य में सुधार आता है।
इसीलिए विविध कारणों से उत्पन्न होने वाले वृक्क विकारों के लिए सर्वतोभद्रा वटी एक उत्तम रसायन कल्प है।
वृक्करोग और सर्वतोभद्रा वटी
वृक्क शोणित मेद प्रसादजन्य अवयव है। अन्य अवयवों की ही तरह इन वृक्कों में भी त्रिदोष प्रकोप से अनेक व्याधि निर्माण होते है। दोषों के तर तम भाव से इनमें उत्पन्न होनेवाले लक्षण अलग- अलग होते है। बाह्यतः सिर्फ मूत्र में दिखाई देनेवाली विकृतियों से वृक्कों में हुई सम्प्राप्ति का अनुमान ही लगा सकते है। प्रायः इसी कारण वृक्कों की व्याधियों का विस्तृत वर्णन ग्रंथों में नहीं मिलता। वृक्क विद्रधी का वर्णन सुश्रुतादि ग्रंथकारोंने किया है। आजकल नयी नयी निदान की पद्धतियों से शरीर में स्थित अवयवों में किस प्रकार की संप्राप्ति निर्माण हो रही है, धातुपाक की अवस्था, अवयव हानि की अवस्था आदि समझ पाना मुमकीन हुआ है। यह सब बाते होने पर भी शाश्वत आयुर्वेद में बताए इस सूत्र पर निर्भर होकर चिकित्सा करना मुमकीन है।
नर्तेऽनिलाद्रुङ न विना च पित्तं पाकः कफं चापि विना न पुयः तस्माद्धि सर्वान् परिपाककाले पचन्ति शोथांस्त्रय एवं दोषाः ।।
मा. नि. ४१/१२
वात के बिना रुजा (वेदना), पित्त के विना पाक तथा कफ के विना पूय की निर्मिती शरीर में होना संभव नहीं है।
वृक्कों के विकार जैसे नेफ्रायटिस, क्रोनिक रिनल फेल्युअर, नेफ्रोटिक सिंड्रोम आदि में वृक्क इस अवयव की हानि होती है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म मूत्रनिर्मिती करनेवाले प्रणालियों में शोथ, दाह, पाक तथा पूयोत्पत्ति होती है, जिससे मूत्र निर्माण प्रक्रिया पर बुरा असर पडकर मूत्रनिर्मिती अंतिमतः बंद हो जाती है।
वातप्रकोप होने से सूक्ष्म स्त्रोतसों में सङ्ग, संकोच, शोष, स्तम्भ आदि स्थानिक सम्प्राप्ति उत्पन्न होती है। पित्तप्रकोप होने से वृक्क की धातु घटकों में दाह (इन्फ्लमेशन), पाक (सपरेशन) उत्पन्न होते है। कफ दोष प्रकुपित होने पर पूयोत्पत्ति, स्थानिक धमनीयों में उपलेप आदि संप्राप्ति उत्पन्न होती है। यह सम्प्राप्तियों के साथ साथ वृक्कों के मूत्रनिर्मिती के कार्य में बाधा आना शुरु रहता है। सम्प्राप्ति का स्तर, तथा दोषों के अधिक्य को ध्यान में लेते हुए सर्वतोभद्रा वटी का उपयोग विविध सह दवाइयाँ तथा अनुपान के साथ करना अत्यंत उपयुक्त साबित होता है।
सर्वतोभद्रा वटी त्रिदोषशामक और रसायन कार्य करती है। वातदोषाधिक्य रहते मधुर रसविपाकी शीत वीर्य, गोक्षुर के कल्प जैसे गोखरु (त्रिकंटकादि) काढा, गोक्षुरादि गुग्गुल के साथ इसका उपयोग कर सकते है। वेदनाधिक्य अथवा स्त्रोतोरोधात्मक संप्राप्ति से उदावर्तजन्य परिस्थिति, उदाध्मान, मलविबंध जैसे लक्षणों के उपस्थित रहने पर हरीतकी जैसे स्त्रोतोरोधनाशक, अनुलोमन फिर भी रसायन कार्य करनेवाले द्रव्य के साथ इसका उपयोग कर सकते है। वातशमन के लिए उत्तम ऐसे बस्ति चिकित्सा का उपयोग भी वृक्क रोगों में निश्चित लाभदायक है।
पित्तदोषाधिक्य के रहते जब वृक्कों में दाह उत्पन्न होता है तब तिक्त कषाय रसात्मक, शीत वीर्य ऐसे चंदनासव, उशीरासव, सारिवाद्यासव जैसे अनुपान के साथ सर्वतोभद्रा वटी का उपयोग कर सकते है। साथ में चंद्रकला रस, श्वेत पर्पटी, मुक्ता पिष्टी जैसे रक्तप्रसादक, पित्तशामक कल्पों का उपयोग लाभदाय सिद्ध होता है। वृक्कों में पाकावस्था के होते रक्तप्रसादक, व्रणरोपक, चंद्रप्रभा वटी, पुनर्नवादि गुग्गुल, गंधक रसायन, त्रिफला गुग्गुल का उपयोग करना चाहिए
कफदोष का पित्तदोष के साथ अनुबंध होने पर वृक्कों में पाकावस्था के आगे जाकर पूय निर्मिती होती है। यह पूयवृक्क अवस्था में मूत्र में पूय की उपस्थिति होती है। इस अवस्था में कफपित्तशामक, रक्तप्रसादक, कैशोर गुग्गुल, गंधक रसायन, चंदनासव, चंद्रकला रस, बृहत् वरुणादि काढा आदि के साथ सर्वतोभद्रा वटी का उपयोग करना चाहिए।
आधुनिक अनुसंधान से यह बात जानी जा चुकी है की मृत हुए वृक्क के सूक्ष्म प्रणालीयों का पुनरुज्जीवन होना अशक्य है। परंतु जिन प्रणालीयों का पूर्णतः नाश नहीं हुआ है, उनका कुछ हद तक पुननिर्माण होता है। तथा इनका कार्य पुनर्स्थापित करना संभव होता है। अतः यह बात अत्यंत महत्त्वपूर्ण है की, वृक्क रोगों में जितनी जल्दी आयुर्वेद चिकित्सा का उपयोग शुरू कर दिया जाएगा उतनी वृक्क हानि रोकने में लाभ मिलेगा।
पथ्य आहार
मूत्र की अम्लता बढने से संपृक्तता बढने से होनेवाले विकारों में जैसे मूत्राश्मरी, मूत्राल्पता, मूत्रदाह, मूत्रकृच्छ्र आदि में जलीय अंशयुक्त तथा शीत गुणात्मक घटकों का आहार में समावेश करना चाहिए।
शुक धान्य - शाली चावल, गेहूँ, सत्तु, नाचनी, ज्वारी
,
शिम्बि धान्य - मूँग, कुलथी (अश्मरीघ्न) शाक वर्ग - मेथी, करेला, पटोल,
पडवल, सहजन, ककडी, गाजर फलवर्ग - आमलकी, केला, नारियल,
द्राक्षा, दाडिम, कुष्माण्ड
दुग्ध वर्ग - गोदुग्ध, गोघृत
हरितवर्ग - हिंग, तमालपत्र, एला, तिल,
लहसुन, आर्द्रक
जलवर्ग - धान्यक तथा जीरक से बना हिम अथवा फाण्ट इक्षु वर्ग - इक्षु
जीर्ण वृक्क अवसाद (Chronic Kidney disease) – रोगियों को नमक तथा पानी की मात्रा पर नियंत्रण रखना चाहिए। इन रोगियों को पचने में हलका तथा घर पर बनाया ताजा आहार ही लेना चाहिए।
अपथ्य आहार
मूत्राश्मरी, मूत्रदाह, मूत्रकृच्छ्र आदि विकारों में उष्ण पदार्थों का सेवन निषिद्ध हैं। हरितवर्ग - हिंग, तमालपत्र, एला, तिल,लहसुन, आर्द्रक
जलवर्ग - धान्यक तथा जीरक से बना हिम अथवा फाण्ट इक्षु वर्ग - इक्षु
जीर्ण वृक्क अवसाद (Chronic Kidney disease) – रोगियों को नमक तथा पानी की मात्रा पर नियंत्रण रखना चाहिए। इन रोगियों को पचने में हलका तथा घर पर बनाया ताजा आहार ही लेना चाहिए।
अपथ्य आहार
मूत्राश्मरी, मूत्रदाह, मूत्रकृच्छ्र आदि विकारों में उष्ण पदार्थों का सेवन निषिद्ध हैं। बाजरा शूक धान्य
शाक वर्ग - पालक, सर्षप
शिम्बि धान्य मसूर, उडद, तुअर
फल वर्ग - खर्जूर, जम्बू, कपित्थ
हरित वर्ग - मरिच, हरी मिर्च
लवण वर्ग - सामुद्र लवण
क्षार वर्ग - पापडखार, क्षारयुक्त पदार्थ
जैसे अचार
कंद वर्ग - आलु, शकरकंद
जीर्ण वृक्क अवसाद के रोगियों में लवण पदार्थ जैसे नमक तथा नमकीन पदार्थ जैसे वेफर्स, अचार, पापड आदि निषिद्ध है।
प्रथिनयुक्त पदार्थ जैसे अंडे, मटन का सेवन भी अपथ्यकर है।
जल वर्ग - जीर्ण वृक्क अवसाद के रोगियों में द्रव पदार्थ तथा पानी की मात्रा तोल मापकर लेनी चाहिए।
मधुर पदार्थ जैसे शक्कर, गुड, मधुर फल भी अपथ्यकर है।
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